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________________ स्तवनों की इतनी अनोखी रचनाएँ की हैं कि मानों अपने अनुभव का सारा खजाना ही उन स्तवनों में खोल दिया हो । निचोड दे दिया है । स्तवनों के माध्यम से ज्ञानपूर्ण ध्यान की प्रक्रिया सिखा दी है। साधक परमात्मा को और साथ ही स्वयं अपनी आत्मा को भी पहचान ले, तथा दोनों के बीच के भेद को समझकर - अभेद साध्य की तरफ अग्रसर हो सके । अतः तल्लीन करनेवाले ऐसे उन भक्ति साधक योगियों के स्तवनों के रहस्यों को समझकर हम भी .... उसका रसास्वाद करें । एवं चतुर्विधध्यानामृतमग्नं मुनेर्मनः । साक्षात्कृतजगत्तत्त्वं विद्यते शुद्धिमात्मनः ॥ १७८ ॥ ध्यानदीपिकाकार कहते हैं कि इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत की कक्षा के इन चारों धर्मध्यान, सद् या शुभ ध्यानों के ध्यानामृत में मुनियों को अपने मन को मग्न- लीन कर देना चाहिए। जिससे जगत् में सारभूत तत्त्व का यह ध्यानस्थ मन साक्षात्कार कर लेगा । निर्मल चिन्ता में यह सामर्थ्य है । यही आत्मा की शुद्धतां प्रकट करती है और क्रमशः शाश्वत पद भी प्राप्त कराता है । निर्मल चित्त ही आत्मा में प्रवेश कराता है। ऐसे ध्यान से ही आत्मा में शान्ति आती है। ध्यान से चित्त में निर्मलता आती है । आत्मा स्वरूप में मस्ती का रसास्वाद करती है । I योगांग- अष्ट -- अष्टांग योग की व्याख्या तथा आवश्यकता पतंजलि जैसे योगी महात्मा ने “पातंजल योग-दर्शन” में की है । तथा इस ग्रन्थ की टीका - विवेचना करते हुए महामहोपाध्यायजी श्री यशोविजय जी महाराज ने भी अत्यन्त सुंदर कक्षा की की है । मन को साधने के लक्ष्य को लेकर अष्टांग योग की प्रक्रिया को समझाया गया है। योग के ८ अंग इस प्रकार दर्शाए १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा, ७) ध्यान, और . ८) समाधि यम-नियमासनंबंधं प्राणायामेंन्द्रियार्थसंवरणम् । ध्यानं - ध्येय-समाधि-योगाष्टांगानि चेति भजः ॥ ९८ ॥ इन ८ योगांगों में उत्तरोत्तर क्रमशः चढते क्रम से आगे बढा जाता है । ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०७१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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