________________
पृथ्वी, पानी, अन्न, वायु तथा आकाश) रहते हैं । अतःप्रथम पंचभूतों की स्थूल धारणा करनी चाहिए । उनमें मन स्थिर करना चाहिए । मन स्थिर होने पर जो साध्य पिण्ड में रही हुई आत्मा उस पिण्डस्थ का ध्यान बताया है।
१) पार्थिवी धारणा में तिर्छालोकवत् क्षीरसमुद्र चिंदवन कर उसमें सुवर्णमय सुमेरु को देखते हुए अपनी आत्मा को उस मेरुपर्वत पर देखना।
२)आग्नेयी धारणा में अपनी नाभि में १६ पत्रवाले कमल के प्रत्येक पत्र पर स्वरयुक्त माला से सुशोभित कर्णिका में स्फुरायमान “अहँ" महामंत्रबीज का चिन्तन करना ।
३) वायवी धारणा में- तीनों भुवनों को भरती हुई पहाडों को चलायमान करती हुई, समुद्रों को शोभित करती हुई,राख-भस्म की राशी के ढेर को उडाती हुई दृढ अभ्यासवाला आत्मा को चिन्तवना चाहिए । पुनः वायु को शान्ति में लाना ऐसी मारुती (वायवी) धारणा चिन्तवनी।
४) वारुणी धारणा में- मेघमाला से घिरे हुए तथा अमृत बरसते हुए आकाश का चिन्तन करना । पश्चात् अर्धचन्द्राकार सुंदर वरुण बीज “व" के चिन्हवाले वरुणमण्डल का ध्यान करना । बाद में वह वरुणपुर अमृतजल से आकाशतल को सींचता हुआ देखे। जिसमें शरीर की उत्पन्न रजकण को धो डालता है। ऐसी वारुणी (जलीय) धारणा है।
५) तत्त्वभूत धारणा में- पूर्णचन्द्र समान निर्मल कान्तिवाले सर्वज्ञतुल्य अपनी आत्मा का शुद्ध स्वरूप देखे। तत्पश्चात् सिंहासन पर बैठी हुई... सर्व अतिशयों से देदीप्यमान, सर्वकर्मक्षयकारक मंगल महिमावन्त, निरंजन-निराकार आत्मा को अपने पिण्डरूप देह में ध्याना चाहिए। इसे पाँचवी तत्त्वभू धारणा कहते हैं। इस तरह पाँचों धारणाओं पूर्वक पिण्डस्थ ध्यान का सतत अभ्यासू योगी मोक्ष सुख सन्मुख होता है । इन धारणाओं को स्वप्नवत् कल्पना मात्र ही नहीं लेकिन वास्तविक स्वरूप में देखे, ऐसा अभ्यास बारबार करने पर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को साधक प्राप्त करता है । यह पिण्डस्थ ध्यान का संक्षिप्त स्वरूप वर्णन किया है। ध्यानदीपिकाकार फल के विषय में कहते हैं कि- ऐसे योगी का मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तंभन, विद्वेषणादि दुष्ट विद्याएँ कभी भी पराभव नहीं कर सकती । कुमंत्रों की असर नहीं होती । मैली विद्याएं असर नहीं कर सकती । कुष्टादि रोग भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । युद्ध परास्त नहीं कर सकता। शस्त्रादि शक्तियों का प्रभाव नहीं होता है । भूत-प्रेत-पिशाचादि हावी नहीं हो सकते। हाथी-सिंहादि वनस्थ पशु भी घात नहीं कर सकते । स्तंभवत् दूर ही रहते हैं । इस प्रकार के अनेक फल प्राप्त होते हैं। १०६२
आध्यात्मिक विकास यात्रा