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अतः एकान्तरूप से कथन नहीं किया जा सकता है । यदि केवल किसी एक ही धर्म की विवक्षा की जाय और अन्य धर्म की विवक्षा न की जाय तो पूर्ण सत्य स्वरूप नहीं बता सकेंगे। अतः स्यात् शब्द से अन्य पर धर्म की भी विवक्षा करके व्यवहार करना चाहिए। जिससे असत्य की तरफ गमन न होकर सत्य की तरफ गमन संभव होगा। एक धर्म के प्रतिपादन से अन्य का अभाव और अन्य धर्म का प्रतिपादन करने पर एक का अभाव स्याद्वाद नहीं करता। यह काम नयवाद का है । स्याद्वाद दोनों को साथ लेकर विवक्षा करता है।
“वत्थु सहावो धम्मो”– वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । अनन्त धर्मात्मक वस्तु है । अनन्तज्ञान जिसे प्राप्त हुआ है ऐसे सर्वज्ञ प्रभु एक ही समय एक साथ अनन्त धर्मों को देख सकते हैं । ज्ञान से जानना, दर्शन से देखना संभव है परन्तु उन सब धर्मों का एक साथ कथन नहीं किया जा सकता। पदार्थ की व्याख्या एक-एक धर्म के अनुसार क्रमानुसार ही की जा सकती है । इस क्रमानुसार करते समय स्याद् शब्द का प्रयोग करके स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित करके ही विवक्षा करनी चाहिए।
१) स्यादस्ति आत्मा। २) स्यानास्ति आत्मा। ३) स्यादस्ति-नास्ति च आत्मा। ४) स्यादवक्तव्यमात्मा। • ५) स्यादस्तिचावक्तव्यमात्मा। ६) स्यानास्ति चावक्तव्यमात्मा।
७) स्यादस्ति–नास्ति चावक्तव्यमात्मा । इस तरह स्याद्वाद दृष्टि से आत्मस्वरूप को पिण्डस्थ ध्यान में चिन्तवना चाहिए। पिण्डस्थ ध्यान बरोबर–स्पष्ट भेदज्ञान कराता है । पिण्डरूप शरीर में रहे हुए चेतनरूप आत्मद्रव्य का ज्ञान कराता है। पिण्डस्थ ध्यान की ५ धारणाएँ
पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा।
पञ्चमी चेति पिण्डस्थे पञ्च धारणाः ।।७/८॥ १) पार्थिवी, २) आग्नेयी, ३) मारुती (वायवी), ४) वारुणी, तथा ५) तत्त्वभू इस प्रकार की ५ धारणाएं पिण्डस्थ ध्यान में होती हैं । पिण्डरूप इस देह में पाँच भूत (पंचभूतध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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