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________________ मंत्री ने कहा 1 देखो, आप लोग तो शर्त के कारण रत्नों के ढेर लेने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन आपको सबको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ... जैन साधु बने हुए दीक्षित चारित्रधारी महात्मा ऐसी तीन तो क्या १० - २० शर्तें, अरे ! इससे भी बडी भारी कठिन शर्तें भी लेने के लिए तैयार हैं, मृत्यु की अन्तिम श्वास पर्यन्त पालने के लिए भी तैयार हैं, और फिर भी ऊपर से इन रत्नों के ढेरों को लेने की कोई इच्छा नहीं रखते हैं । अरे ! इच्छा तो क्या स्पर्शमात्र भी करना नहीं चाहते हैं । सर्वथा रत्नों का भी त्याग करते हुए और ऐसी ऐसी असंभवसी ३ तो क्या १० - २० शर्तें इनसे भी भारी पालने के लिए तैयार हैं । सचमुच वही हुआ । और जैन साधु के त्याग, तप और महाव्रत की महानता देखकर राजगृही की समस्त प्रजा जैन साधु के चरणों में नतमस्तक हो गई । त्याग की जय बोलते बोलते काफी, अनुमोदना प्रशंसा की । इस तरह का त्याग वास्तव में त्याग है । यह सद्भावात्मक त्याग है । काफी बडा त्याग है । होते हुए भी, उपलब्ध रहने पर भी, या पास में होने पर भी न उपभोग करना यह सबसे ऊँचा त्याग है । I I मोहक्षय की साधना - त्याग त्याग से अप्रमत्त भाव I मोहनीय कर्म का ज्यादा बंध मोह के विषयों के सेवन से ही होता है। विषय-भोगादि सभी मोह के विषय हैं। इनके सेवन में पुनः राग की वृद्धि और राग के साथ द्वेष की वृद्धि भी सहयोगी है, वह भी होती ही रहेगी। इस तरह राग द्वेष की वृद्धि होती रहेगी । जो भी मोह के रागादि जनक विषय हैं उनको भोगने आदि के निमित्त पुनः कषाय भी जगेंगे । ऐसे कषाय पुनः मोहनीयादि कर्मों का भारी बंध करा देंगे । और फिर ऐसे कर्मों की भारी दीर्घस्थितियों को भोगने के लिए पुनः जीव को कई भव- जन्म ग्रहण करने पडेंगे । इस तरह तो संसार की भारी वृद्धि हो जाएगी। काफी लम्बे संसार में काफी लम्बे काल तक भटकते ही रहना पडेगा । इस तरह तो इसका कभी अन्त ही नहीं आएगा। अतः ऐसे संसार से बचने के लिए अत्यन्त आवश्यक है कि मोह-माया के समस्त विषयों का पहले से ही त्याग कर दिया जाय । ताकि ये पुनः नए कर्म न बंधाए । इसलिए ध्यान - तप - जपादि की तरह मोहनिमित्तक विषय-भोगों का त्याग करना अत्यन्त सहयोगी एवं सहायक है । इस तरह प्रत्यक्षरूप में ध्यान - तपादि सहायक हैं तो परोक्ष रूप से भी त्याग धर्म अत्यन्त सहायक है । सबसे ज्यादा आवश्यक भी है । आज दिन इस संसार में संसार के भोग एवं उपभोग की समस्त साधन-सामग्रियाँ जितनी भी हैं वे सब देहोपयोगी हैं। आत्मोपयोगी इनमें से कुछ भी नहीं है । विषय भोग ९७० आध्यात्मिक विकास यात्रा 3
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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