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दोषभूत क्रोध, लोभ, भय व हास्यादि कारण ही नहीं है तो वें असत्य बोल ही कैसे सकते हैं? कारण के बिना कारण कार्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ऐसा सर्वथा असंभव ही है । अतः यह स्वीकारना निर्विवाद है कि जो-जो भगवान ने कहा है वह पूर्ण सत्य है। साथ ही जो-जो सत्य है वह भगवान ने ही कहा है।
सर्वज्ञ वीतरागी भगवान के सिवाय सत्य का चरमस्वरूप बतानेवाला जगत में और कोई है ही नहीं । जैसे सूर्य के कारण दिन और दिन के कारण सूर्य, अन्योन्याश्रित कारणरूप हैं, ठीक वैसे ही भगवान के कारण सत्य और सत्य के कारण भगवान ये भी अन्योन्याश्रित कारण रूप होने से दोनों ही जन्य-जनक कारणरूप हैं। सत्य का कारण भगवान और भगवान का कारण सत्य । इसलिये जो सर्वज्ञ वीतरागी भगवान हैं, वे ही चरम सत्य का स्वरूप बता सकते हैं । इसलिये आगम शास्त्र में सम्यक्त्व की व्याख्या करते हए स्पष्ट कहा है कि- “जंजं जिणेहिं भासियाई तमेव निःसंकं सच्चं ।" -- “तमेव सच्चं निःसंकं जंजिणेहिं पवेइयं ।” जो-जो सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवान ने कहा है वही शंका रहित सत्य है, ऐसा मानना स्वीकारना ही सम्यक्त्व है। सर्वज्ञ जो अनन्तज्ञानी, केवलज्ञानी है, जिन्होंने समस्त लोक–अलोक रूप सारा संसार जाना है, देखा है । अनन्त पदार्थों के अनन्त गुण-पर्यायों का सम्पूर्ण ज्ञान जिन्हें है, वे जो तत्त्व का स्वरूप प्रतिपादित कर गये हैं, वही चरम सत्य है व भविष्य में भी होगा। अतः ऐसे चरम सत्य रूप तत्त्वार्थ तत्त्वभूत पदार्थ में जो पदार्थ जैसा है उसे उसी रूप में वैसा ही देखना, जानना एवं मानना उसमें अंश मात्र भी शंका न रखना, यही सम्यक्त्व की उत्तम व्याख्या है । जिनेश्वर प्रतिपादित तत्त्व में यथार्थ बुद्धि रखनी, वास्तविक सच्चे ज्ञान के प्रति श्रद्धा रखनी, यही सम्यक्त्व है। इससे बढ़कर श्रेष्ठतम व्याख्या क्या हो सकती है? इस प्रकार सम्यक्त्वी सत्य का पाती, सत्य का आग्रही एवं सत्यान्वेषी होता है। वह प्रत्येक बस्तु एवं तत्त्वभूत प्रदार्थ को यथार्थ, वास्तविक स्वरूप में देखता, जानता व मानता है । ऐसे सम्यक्त्वी की दृष्टि भी सम्यक् (सच्ची), ज्ञान जानकारी सम्यक् (सच्चा),और उभय रूप से मानना श्रद्धा भी सम्यग्(सच्ची) होती है । अतः वह सच्चा सम्यक्त्वी होता है।
अतः देखने, जानने और मानने की तीन रीतियों से जिसने अपनी वृत्ति सम्यक् बनाई है वह सच्चा सम्यक्त्वी है । ऐसा सम्यक्त्वी जो सम्यग् ज्ञानी है, जो प्ररूपणा प्रतिपादन करेगा, उसमें भी सत्य, पानी पर तैल की तरह तैरता हुआ, स्पष्ट दिखाई देता है, सम्यक्त्वी का सम्यग् ज्ञान और सम्यक् श्रद्धा किसी से छिपी नहीं रह सकती है । वह जीवादि सभी
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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