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________________ आसपास के क्षेत्र में अधोलोक का केन्द्र बिन्दु आएगा । अथवा नीचे से ३ || राज के बाद और तिर्छा लोक की समतल भूमि से भी ३ ॥ राज नीचे अर्थात् नीचे से ४ थे राजलोक में अधोलोक का मध्य बिन्दु - केन्द्रस्थान आता है । उस केन्द्र बिन्दु से - ३ ॥ राज ऊपर और ३ ॥ राज नीचे इस तरह कुल मिलाकर सात राज लोक प्रमाण अधोलोक है । मध्यलोक का केन्द्र बिन्दु इसी तरह मनुष्यलोक - तिर्छालोक का मध्यस्थान- -केन्द्रबिन्दु अष्टरूचक प्रदेशवाले क्षुल्लक प्रतर है । १४ राज लोक के बीच के १ राज लोक लोकक्षेत्र में घण्ट (झल्लरी) की आकृति के समान गोलाकार है । और बीच में बजाने के लिए जैसे घण्ट है उस तरह मेरूपर्वत है । मेरूपर्वत का १००० योजन का भाग भूमि के अन्दर गया हुआ है । इस समान्तर भूमि का नाम समतला भूमि है । इस समतला भूमि से ९०० योजन नीचे और इसी तरह ऊपर भी ९०० योजन इस तरह कुल मिलाकर १८०० योजन प्रमाण यह तिर्छा-मध्य लोक है । इसके बीच अष्टरूचक प्रदेशवाले क्षुल्लक प्रतर है वहाँ गोस्तनाकार प्रदेशों को मध्यलोक का मध्यस्थान केन्द्रबिन्दु कहा गया है। संपूर्ण १४ राज लोक के मध्य में स्थित होने से तिर्छा लोक को मध्यलोक कहा गया है । और दूसरे तरीके से इस मध्य लोक में मध्यम परिणामवाले द्रव्यों के संभव से भी इसका मध्यम लोक नामकरण किया गया है । ऊर्ध्वलोक का केन्द्र बिन्दु- १४ राजलोक क्षेत्र में दो विभागं हो गए । ७ राज लोक नीचे-अधो लोक के और ऊपर भी ७ राज लोक में कुछ न्यून ऐसा ऊर्ध्वलोक है । ऊर्ध्व लोक-तिर्छालोक के मध्य बिन्दु अष्टरूचक प्रदेश से ऊपर लोकान्त तक ऊर्ध्वलोक है । ऊर्ध्वलोक में जो १२ देवलोक हैं उनमें ४ थे देवलोक से ऊपर और ५ वें ब्रह्मदेवलोक के ६ प्रतर हैं । उन ६ प्रतरों में से ३ रे रिष्टनामक प्रतर को ऊर्ध्व लोक का मध्य- -केन्द्रबिन्दु कहा गया है । वैसे यहाँ पर लोकान्तिक देवों के विमान स्थित हैं । इस तरह Jain cosmological thoughts जैन ब्रह्माण्ड शास्त्रानुसारी वर्णन के आधार पर समस्त ब्रह्माण्ड का विचार किया जा रहा है। इसी तरह भौगोलिक Geographical विचार भी करें । २६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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