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तिर्छालोक के मेरुपर्वत के ९०० योजन पूर्ण होने के बाद ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होता है । जो लोकान्त तक है । आठवें राज से देवलोक प्रारंभ होता है । यह भी ७ वें के ९०० योजन बाद से १४ वें राजलोक तक ७ राजलोक से अधिक प्रमाण का है। ८ वें राजलोक में १ला, २रा दो देवलोक हैं । ९ वें राजलोक में भी ३ रा ४ था दो देवलोक हैं । १० वे राज लोक में भी ५ वां, ६ ठा दो देवलोक हैं । ११ वें राजलोक में भी ७ वां, ८ वां दो देवलोक हैं । १२ वें राजलोक में ९ वां, १० वां, ११ वां, १२ वां ये चार देवलोक हैं । १३ वे राजलोक में ९ ग्रैवेयक के विमान हैं । और अन्तिम १४ वे राजलोक में ५ अनुत्तर विमान हैं। तथा अन्त में लोकान्त में सिद्धशिला है । जिस के ऊपर अनन्त सिद्धों का वास है । बस, लोकान्त के बाद अलोक शुरू हो जाता है । इस तरह यह ऊर्ध्वलोक स्वर्गीय देवताओं से भरा पडा है । ऐसे देवताओं की संख्या असंख्य की है । ७ राज लम्बे इस ऊर्ध्वलोक की चौडाई क्रमशः इस प्रकार है । तिर्छालोक के ९०० योजन का क्षेत्र पूर्ण होने के बाद ऊर्ध्वलोक क्रमशः शुरू होता है । वह अंगुल के असंख्यात भाग से क्रमशः बढता–बढता .... चौडाई में बढ़ता ही जाता है । पूर्व ब्रह्मदेवलोक तक १० वें देवलोक तक आते आते चौडाई का विस्तार ५ राज प्रमाण हो जाता है । यह चौडाई ऊर्ध्वलोक में सब से ज्यादा है। आगे फिर क्रमशः घटते-घटते चौडाई घटती जाती है । जो ऊपर १४ वें राज तक पहुंचते-पहुंचते चौडाई सिर्फ १ रज्जु (राज) ही रह जाती है । इस तरह ऊर्ध्वलोक की चौडाई-लम्बाई का विस्तार हुआ । उस ऊर्ध्वलोक में कल्पोपन्न और कल्पातीत वैमानिक देवताओं के विमान आदि हैं। उनका वास यहाँ है । यहाँ कोई मनुष्य-पशु-पक्षी नहीं होते हैं। अधोलोक-पाताल लोक-नरक का स्वरूप- .
ऊर्ध्वलोक का ठीक उल्टा-विपरीत यह अधोलोक है। उल्टे रखे गए शराव की आकृति जैसा है । नीचे से लेकर ऊपर तक क्रमशः७ राजलोक प्रमाण है। और नीचे से ऊपर आते-आते क्रमशः चौडाई का विस्तार घटता जाता है । नीचे सातवीं नरक की चौडाई का विस्तार ७ रज्जु प्रमाण है । तो वह १-१ राज घटते
आध्यात्मिक विकास यात्रा