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अध्याय १
जगत् का स्वरूप
सत्य के केन्द्रबिन्दु - सर्वज्ञ
आइये, सर्वप्रथम इस जगत् को समझें । यथार्थ और वास्तविक स्वरूप इस जगत् का क्या और कैसा है ? यह समझें । अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त परमात्मा श्री महावीर प्रभु ने अपने केवल दर्शन से इस अनन्त ब्रह्माण्ड को जैसा देखा है, जैसा प्रत्यक्ष स्पष्ट देखा है और उसे ही केवलज्ञान से पूर्ण शुद्ध स्वरूप में जैसा स्पष्ट जाना है; ठीक वैसा ही अपने वीतराग भाव गुण से यथार्थ वास्तविक स्वरूप जीवों को अपने उपदेश द्वारा समझाया है । आत्मा का दर्शन गुण देखने का काम करता है । और ज्ञान गुण जानने का काम करता है । उसी के कथन के समय निर्मोह - वीतरागता का गुण सत्यकथन कराता । इसीलिए समस्त ज्ञान का केन्द्रबिन्दु सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा ही है । बस, उन्हीं के कथन में - वचन में सम्पूर्ण समर्पणभावपूर्वक पूरी श्रद्धा रखनी चाहिए ।
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हम रागी-द्वेषी–कषायों से भरे हुए सामान्य जीव असत्य - झूठ बोल सकते हैं । क्योंकि असत्य के पीछे क्रोध - मान-माया - लोभ - हँसी-मजाक आदि कई कारण हैं । और इन कारणों से घिरा हुआ कर्मग्रस्त संसारी जीव झूठ बोलता है । परन्तु इन क्रोधादि कषायों से सर्वथा मुक्त.वीतरागी तीर्थंकर भगवन्तों के लिए असत्य बोलने का कोई कारण ही नहीं है । हंबक बातें वे जीवों को कभी भी नहीं कहते हैं । वे जो भी कहेंगे चरम सत्य की ही बात कहेंगे, इसलिए इस संसार में सत्य के लिए एकमात्र सर्वज्ञ वीतरागी भगवन्तों पर ही पूर्ण विश्वास - सम्पूर्ण श्रद्धा रखनी ही चाहिए। बस, इनके सिवाय अन्य किसी पर जो उनसे विपरीत गुणवाले अल्पज्ञ एवं रागद्वेष ग्रस्त हो उनपर विश्वास या श्रद्धा रखने पर असत्य का ही ग्रहण होगा । अतः चरम - अन्तिम सत्य के लिए वीतरागी - अनन्तज्ञानी भगवन्तों पर ही पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। उन्हीं के कथन वचन को अन्तिम सत्य के स्वरूप में स्वीकारना चाहिए । और वैसा ही दूसरों को कहना चाहिए। As it is ठीक वैसा ही यथार्थ स्वरूप दूसरे जीवों को कहकर उनकी अज्ञानता भी दूर करते हुए उन्हें सत्य का स्वरूप दिखाना-समझाना चाहिए। इस तरह सत्य का प्रसार-प्रचार होगा । सत्य की
जगत् का स्वरूप
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