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________________ २. अधर्म में धर्म की संज्ञा हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, व्यभिचार, एवं संभोग में समाधि, अनाचार आदि पाप प्रवृत्ति रूप अधर्म में धर्म की बुद्धि रखना या उसे धर्म मानना। ३. सन्मार्ग को उन्मार्ग मानना जिससे आत्मा का कल्याण हो, पुण्य का बंध हो, या मोक्षमार्ग रूप जो सत्यमार्ग है, उसे उल्टा पाप मार्ग मानना, तथा साधु एवं श्रावक के यम-नियम आदि व्रत–महाव्रतादि के मार्ग को गलत मार्ग मानना । इस तरह हितावह सुमार्ग को उन्मार्ग समझना। ४. उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना___जिससे स्वर्ग की प्राप्ति हो, उसे ही मोक्ष का मार्ग मान लेना, या पशुयाग, नरबलि, अश्वमेध यज्ञ, आदि हिंसाजन्यं यागादि से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति मानना, भोगलीला में ही धर्म मानना, अन्याय, अनीति, कूटनीति, कुरीति आदि में भी पुण्य मानने की बुद्धि, आदि उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना भी मिथ्यात्व कहलाता है। ५. असाधु को साधु मानना धन-सम्पत्ति-ऐश्वर्य एवं भोगविलासवाले महाआरम्भी-परिग्रही एवं स्त्री-लब्ध, मोहासक्त, परभावरत, एवं कंचन-कामिनी के भोगी, ऐसे वेषधारियों को साधु मानना, या उन्हें गुरुरूप मानना यह मिथ्यात्व है । ६. साधु को असाधु मानना जो सच्चे साधु हैं, गुण सम्पन्न हैं, कंचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी, तपस्वी, पंचमहाव्रतधारी, आरम्भ-परिग्रह के त्यागी, पंचिंदिय सूत्र में बताए गए छत्तीस गुणसम्पन्न, सच्चे साधु महात्मा को साधुरूप या गुरुरूप न मानना यह भी मिथ्यात्व की वृत्ति है। ७. जीव को अजीव मानना संसार की चार गति में ५६३ प्रकार के जीवों के भेद बताए गए हैं, ऐसे कृमि-कीट-पतंग-चूहा बिल्ली, तोता-मैना, कौआ-कोयल, साँप-मोर, गाय-बैल, भेड़-बकरी, हाथी-घोड़ा, स्त्री-पुरुष एवं वनस्पतिकाय आदि स्थावरों में जीव होते हुए भी उनमें जीव न मानना, एवं वे जीवरहित हैं, अतः उन्हें मारने में, खाने में कोई पाप नहीं "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३९९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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