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________________ करता हूँ । अब इस सूत्रपाठ से देव शब्द के विषय में जो भ्रान्तिभ्रमणा थी, वह सर्वथा दूर हो जाती है । ऐसे स्वर्ग के देवताओं के भी अधिपति ईश्वरादि देवताओं से भी जो पूजे गए हैं उन देवाधिदेव परमेश्वर महावीर स्वामी को नमस्कार किया गया है। क्योंकि स्वर्ग के देवी-देवतादि तो रागी-द्वेषी होते ही हैं जबकि परमात्मा सर्वथा वीतरागी है । अतः देव शब्द स्वर्गवाची देवी-देवताओं के अर्थ में यहाँ प्रयुक्त नहीं है । इस तरह परम शुद्ध अर्थ में देव-ईश्वर का स्वरूप समझकर-जानकर-मानकर मिथ्यात्व के विषचक्र में से बाहर निकलना ही चाहिए। मिथ्यात्व की १० संज्ञाएं मिथ्यात्व, मिथ्यात्वी या मिथ्या दृष्टि का आधार मात्र ईश्वर पर ही नहीं है । ऐसी १० संज्ञाएं भिन्न भिन्न प्रकार की हैं, जिन पर जीवों की मान्यताएं अलग अलग प्रकार की होती है, बनती है । एक मात्र ईश्वर के विषय में मान्यता सही बन भी जाय परन्तु अन्य सभी विषयों में जीव की धारणा सही सम्यग् न भी बने तो वह जीव पुनः मिथ्यात्वी ही कहलाता है। अतः एक मात्र ईश्वर के विषय में मान्यता शुद्ध कर लेने से भी चलता नहीं है । अन्य सभी मान्यताओं को भी सुधारनी जरूर चाहिए । यद्यपि सर्वज्ञ-सर्वदर्शी परमात्मा जो सब के केन्द्र में है- अतः केन्द्रीभूत ऐसे परमेश्वर के विषय में मान्यता और समझादि शुद्ध हो जाय, सही हो जाय तो शेष अन्य के लिए ज्यादा कठिनाई नहीं आती है। वे.आसान है । ऐसी १० संज्ञाएं इस प्रकार हैं धम्मे अधम्म, अधम्मे-धम्मः सन्ना मग्ग उमग्गाजी। उन्मार्गे मारग की सन्ना, साधु असाधु संलग्गा जी, असाधु मां साधुनी सन्ना, जीव-अजीव जीव वेदो जी, मुत्ते अमुत्त, अमुत्त मुत्तः सन्ना दस भेदो जी ।। १. धर्म में अधर्म संज्ञा क्षमा, मार्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनत्व और ब्रह्मचर्य आदि दस प्रकार के धर्म को धर्म रूप न मानना, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपादि का धर्म भी न मानना, तथा दर्शन-पूजा, सामायिक–प्रतिक्रमण, आयंबिल-उपवास, तथा पौषध आदि को धर्मरूप न मानते हुए उसमें अधर्म बुद्धि रखना, यह पहली मिथ्यात्व की संज्ञा है। ३९८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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