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________________ अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी एक और रसप्रद बात ऐसी कहता है कि- मैं तो “बड़ी उदारवृत्तिवाला हूँ" एवं “विशाल भावनावाला हूँ" इस तरह मैं बिना पक्षपात या भेदभाव के सब भगवान को एक मानता हूँ इसलिए मेरी विशाल भावना बहुत ऊँची है । आपाततः ऊपरी दृष्टि से देखने पर यह बात अच्छे-अच्छे के गले उतर जाती है। कई लोग इसे स्वीकारने भी लग जाते हैं । परन्तु यह भी कहाँ तक सही है ? यह देखने के लिए पुनः हमें गहराई में जाकर परीक्षा करनी पडेगी । एक सीधे-सादे उदाहरण से समझा जाय तो कैसा लगेगा? यह आप सोचना । एक पतिव्रता स्त्री यह कहे कि मैं संकुचित वृत्तिवाली नहीं रहना चाहती हूँ, मैं भी उदार भावना एवं विशाल मनोवृत्तिवाली होकर सभी पुरुषों को पति मानना चाहती हूँ। सभी पुरुष मेरे पति हैं । अतः मैं किसी एक को ही क्यों मेरा पति मानूँ? उदारता से सभी को पति मानती हूँ । आखिर दाम्पत्य जीवन का सांसारिक सुख तो सभी से एक जैसा ही मिलता है। सभी पुरुष एक सरीखे ही हैं । मात्र नाम भेद ही भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु देह सादृश्य से एक जैसे ही हैं । इसलिए संकुचित बंधन छोड़कर सभी को मेरे पति मानूँ । ह कितनी बडी उदारता है। सज्जनों ! सोचिए क्या आपकी ही पत्नी यदि ऐसा कहे तो चलेगा? क्या आप इस बात को स्वीकार करेंगे? सभा में से उत्तर- नहीं, नहीं। यह कभी भी बर्दास्त नहीं होगा । वह पतिव्रता स्त्री कैसे कहलायेगी? यदि यह सभी को पति मानती है तो वेश्या कहलायेगी। फिर वेश्या और पतिव्रता में अन्तर क्या रहा? यदि हम हजारों वर्षों का इतिहास देंखे तो अनेक सतियाँ एवं महासतियाँ शुद्ध, एक पतिव्रता धर्म पालकर महान हुई हैं । सभी मेरे पति हैं, ऐसा विचार उन्होंने स्वप्न में भी नहीं किया, व्यवहार में भी कोई ऐसा नहीं बोलती है। यदि एक स्त्री पति के विषय में ऐसा नहीं बोल सकती है, तो एक भक्त भगवान के विषय में सब भगवान एक हैं ऐसा बोले, यह कहाँ तक उचित हैं ? एक पति के प्रति शद्ध धर्म पालकर यदि सति–महासति बन जाती है। तो एक भगवान के प्रति शुद्ध धर्म पालकर भक्त महान् सम्यक्त्वी बन सकता है। इसलिए आनंदघन जैसे अवधूत योगी महात्मा भी अपने भगवान को प्रीतम प्रियतम मानकर स्वयं उसकी पत्नी प्रियतमा भाव से रहकर एक पतिव्रता धर्म की तरह अखंड एवं सचोट श्रद्धायुक्त धर्म से भगवान को कहते हैं कि ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ रे कंत। रीझ्यो साहिब संग न परिहरे, भांगे सादि अनंत ।। "मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान ३७९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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