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Ah बारे में किसी को गलत मार्गदर्शन करता है। उल्टा ही सब सिखाता है । उसकी आत्मा को इस श्रद्धा के विषय में ठगता है। किसी की श्रद्धा को नुकसान पहुँचाता है । उसकी सच्ची मान्यता को धक्का पहुँचाता है । इस तरह मायावी उल्टी विपरीत मनोवृत्ति रखता
। उसकी विपरीत वृत्ति के कारण वह स्व-पर दोनों का नुकसान करता है । आत्मा - मोक्षादि विषयों में किसी अन्य व्यक्ती को सही समझ देनी तो दूर रही परन्तु विपरीत उल्टा ही समझाकर उसे उल्टे रास्ते ले जाता है । अपना और दूसरों का दोनों का अहित करता है । अतः स्व- पर उभय घातक होता है मिथ्यात्वी । मिथ्यात्व संसार भ्रमणकारक होता है ।
मिथ्यात्वी की विपरीत वृत्ति
अदेवे देवता बुद्धिरगुरौ च गुरुता मतिः । अधर्मे धर्मबुद्धिर्या मिथ्यात्वं तदुदीरितम् ॥
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मिथ्यात्व की वृत्ति के कारण .... . वैसी बुद्धि - दृष्टि के कारण उसकी विचारधारा सर्वथा विपरीत हो जाती है । संसार की सांसारिक दृश्य वस्तुओं के व्यवहार एवं मान्यताओं में मिथ्यात्वी को कहीं कोई तलकीफ नहीं है। संसार के दृश्य सभी हीरा मोती–रत्नों आदि सभी वस्तुओं को वह जानता है - है- मानता है । घर परिवार में भी सगे-सम्बन्धी सभी व्यक्तियों को वह मानता है । लौकिक व्यवहार की सभी वस्तुओं को जानने-मानने में उसे कोई एतराज नहीं है । सिर्फ लोकोत्तर कक्षा के जो तत्त्वभूत पदार्थ हैं उन्हें मानने में ही आपत्ति है । आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि जो अदृश्य तत्त्व हैं जो ज्ञानगम्य हैं उन्हें मानने में ही तकलीफ है । इसके कारण सत्यान्वेषी बुद्धि ही उसकी नष्ट हो जाती है । १) देव २) गुरु और ३) धर्म ये तीन आधारभूत तत्त्व हैं। इनमें सबका समावेश हो जाता है । इन तीनों में सर्वथा विपरीत वृत्ति करके जानना - मानना और जगत में दूसरों को समझाना आदि व्यवहार में सर्वत्र विपरीतता ही रखता है ।
१) देव शब्द यहाँ देवाधिदेव का संक्षिप्त रूप है । जो तीर्थंकर परमात्मा का वाचक है । जो सर्वथा राग - - द्वेषरहित वीतरागी हो, धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले तीर्थंकर भगवान हो, आत्मा के काम-क्रोध- मोहादि समस्त अरियों का नाश करनेवाले अरिहंत हो, तथा जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो, उन्हें ही उपास्य- आराध्य देव के रूप में मानना ही उचित
है । उन्हें देव कहते हैं । लेकिन मिथ्यात्वी इस सत्य को भी छोडकर ठीक इससे विपरीत
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स्वरूपवाले को ही देव भगवान कहता है । जो राग-द्वेषग्रस्त हो, क्लेश- कषायग्रस्त हो,
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आध्यात्मिक विकास यात्रा