________________
प्रभारूप प्रकाश वह भी हमारे व्यवहार के लिए पर्याप्त है । उसको सर्वथा रात्री भी नहीं कहेंगे । ठीक इसी तरह आत्मा पर ज्ञानावरणीय कर्म का तीव्रतम आवरण छा जाने के बावजूद भी सर्वथा ज्ञान का अभाव न होकर आंशिक ज्ञान भी प्रकट तो रहेगा ही । अतः अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव न करते हुए ज्ञान की न्यूनता - अल्पता ही अर्थ करना उचित है। शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं कि
सव्व-जियाणमक्खरस्सं अणंतमो भागो निच्चं उग्घाडियो चिट्ठइ । जइ पुण सोवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा ।। आगमशास्त्र में कहते हैं कि — सर्व जीवों में अक्षर = अर्थात् केवलज्ञान के अनन्तवें
भाग का ज्ञान भी नित्य प्रकट रहता ही है । यद्यपि भारी ज्ञानावरणीय कर्म के कारण जीवात्मा आवृत्त भी हो, ज्ञान
आच्छादित भी हो फिर भी ज्ञान के अनन्तवें भाग के रूप में प्रकट रहने से जीव का जीवत्व टिका हुआ है। जागृत रहेगा। इसी कारण जीव के जीवत्व का एवं ज्ञान का सर्वथा अभाव या नाश होनेवाला ही नहीं है । इसीलिए अज्ञान शब्द ज्ञान की अल्पता की सूचक - द्योतक बनता है ।
तीव्र ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जो आत्मा पर आवरण लगा है और उसके उदय से जो अज्ञान सामने आया है वह मिथ्यात्व है या नहीं ? अज्ञानता की उपस्थिति में जो मिथ्यात्व उदय में रहता है वह अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है । लेकिन सभी मिथ्यात्व अज्ञानमूलक नहीं रहते हैं । अज्ञान और आग्रह इन दो पर मिथ्यात्व जीता है । अज्ञान और आग्रह की इन दो पटरियों पर मिथ्यात्व की गाडी चलती है। अज्ञान पर तो फिर भी कम लेकिन आग्रह की बुद्धि पर ज्यादा ।
इसलिए “विपरीत: भावः मिथ्याभाव:" इस प्रकार विपरीत - अल्प - विकृत ज्ञान मिथ्याज्ञान—मिथ्यात्व कहलाता है। दूध यदि प्राकृतिक स्वरूप में ग्रहण किया जाय तो बहुत ही अच्छा रहता है। दूध में शक्कर मिलाया जाय तो शक्कर उसकी प्रकृति
" मिथ्यात्व"
• प्रथम गुणस्थान
-
३६७