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के चरणों में ही हो सकती है। आराधक को छहों दर्शनों में सामंजस्य-संवादिता स्थापित करनी है। जिनेश्वर प्रभु सर्वज्ञ होने से पूर्णपुरुष हैं। सर्वदर्शी होने से उनको विराट विश्वदर्शन भी पूर्ण होता है।
आनन्दघन योगी कह रहे हैं कि- पूर्ण पुरुष सर्वज्ञ में वैदिक दर्शन और बौद्धदर्शन समाविष्ट किये गए हैं। चार्वाक-नास्तिकदर्शन होते हुए भी उसका समावेश योगीराज ने पूर्ण पुरुष में किया है । नमिजिन भगवान साक्षात कल्पवृक्ष समतुल्य हैं । उनके दो चरण युगल पर . . . सांख्यदर्शन और योगदर्शन को स्थापित किया है । जिनेश्वर प्रभु को खडे रहने के लिए ये
दोनों सांख्य–योग दर्शन मजबूत पूर्ण पुरुष
आधारभूत अंग हैं ऐसा निश्चिंत होकर मान लो । आत्मस्वरूप का विचार करते समय सांख्ययोग का दर्शन भी ध्यान में लेना चाहिए । घबराइये मत कि ये तो मिथ्यादर्शन हैं और हम इनको कैसे नमिजिन के चरुणरूप मानें? नहीं, जैन दर्शन की आत्मा के तत्त्व को सांख्य ने पुरुष के नाम से कहा है । और कर्मतत्त्व को प्रकृति नाम दिया है। शब्दभेद जरूर है परन्तु अर्थभाव में साम्यता है। योगदर्शन में आत्मा की शुद्धीकरण की प्रक्रिया अष्टांगयोग से बताई है।
बौद्ध (सुगत) भेदवादी है। मीमांसक (वेदान्ती) अभेदवादी है। ऐसे ये दोनों नगिजिन रूपी पूर्ण पुरुष के दो हाथ के स्थान पर हैं । लोकालोक के लिए दो हाथ आलंबन रूप हैं। प्रत्येक पदार्थ को विशेष कहकर क्षणिक मानने की धारणा बौद्धदर्शन ने बनाई है । वेदान्त दर्शन ठीक इससे विपरीत नित्य मानता हुआ एक सामान्य कहता है। परन्तु पूर्णपुरुष नमिजिन के अंग बनने पर विरोध दूर हो जाता है। एकान्त क्षणिक-अनित्य और एकान्त नित्य न मानते हुए पदार्थ को द्रव्यस्वरूप से नित्य और पर्यायस्वरूप से अनित्य मानना ही उचित है । यही जिन दर्शन है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा