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________________ कर्म का कर्ता है और जो किये हुए कर्मों के फल को भुगतनेवाला है, तथा कर्म के कारण ही संसार में जन्म-मरण धारण करते हुए भटकता ही रहता है उसे ही संसारी आत्मा कहते हैं । इस तरह कर्मों के आधार पर आत्मा को सिद्ध किया है । तथा कर्म करनेवाला लक्षण निश्चित किया है । आत्मा संसारी अवस्था में राग-द्वेष के अधीन होकर भिन्न-भिन्न ८ प्रकार के कर्म उपार्जन करती है— गोदोसो वय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्पं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति । उत्त. ३२-७ अपनी अन्तिम देशनास्वरूप श्री उत्तराध्ययन सूत्र में श्री वीरप्रभु कह रहे हैं किराग और द्वेष ये दोनों कर्म के मूल बीज हैं और कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं। वही कर्म जन्म-मरण का मूल कारण है। इसलिए जन्म-मरण की गणना दुःख में ही की जाती है । वंदितु सूत्र में कहा है कि- “ एवमट्ठविहं कम्मं रागदोषसमुज्जिअं ।" इस प्रकार आठों कर्म जो राग-द्वेष से ही उपार्जित किये गए हैं वे ही आत्मा का बिगाड़ते हैं । संसार में अनन्त काल से जीव राग-द्वेष की प्रवृत्ति करता ही आया है। एक क्षण भी इस संसार में जीव राग द्वेष के बिना रहा ही नहीं है । सतत राग द्वेष की प्रवृत्ति चलती ही रही है । इसी आधार पर आत्मा को सतत - निरंतर - अखण्ड रूप से कर्मों का बंध होता ही रहा है और इन आठों कर्मों में- एक मोहनीय कर्म का ही बन्ध सबसे ज्यादा रहा है । मोहनीय कर्म ही बड़ा भारी प्रबल कर्म है । सबसे ज्यादा संसार में प्रवृत्ति भी मोहनीय कर्म की ही होती है । इसलिए सबसे ज्यादा बंध भी इसी कर्म का होता रहता है । उदय भी सबसे ज्यादा इसी कर्म का रहता है । इसलिए यह एक ही कर्म ऐसा है जो सारा संसार चलाता है । वैसा संसार बनाता है । और जीवों की वैसी हालत करता है । मुह्यन्ते यत्र जना तत् मोहनीयम् । जिसके कारण जीव मोहित हो जाते हैं उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । सर्वत्र पूरे संसार पर, संसार के अनन्त जीवों पर शिरछत्र की तरह इस एक कर्म का प्रबल साम्राज्य छाया हुआ है । सभी जीव इसके अधीन - ग्रस्त हो चुके हैं । ३४८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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