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व्यग्र–व्याकुल रहेगा। आपके मन में भी दंभ जैसा लगेगा कि अरे मैं यह क्या कर रहा हूँ? आपकी अन्तरात्मा अन्दर से दुःखी होगी । साफ कहेगी कि... मैं यह दंभ कर रहा हूँ । अन्दर पाप की वृत्ति भरी पडी है, पाप की गलत प्रवृत्ति भी कर रहा हूँ, और उसमें ऊपर धर्म की प्रवृत्ति भी कर रहा हूँ। यह दोनों साथ करना कहाँ तक उचित है? हाँ, सामान्य छोटी सी गलती हो जाय तो फिर भी कुछ चल सकता है। लेकिन पाप की बडी भारी प्रवृत्तियाँ करते रहना और फिर बाद में धर्म की प्रवृत्ति भी करके दुनिया को राजी कर देना यह कहाँ तक उचित है ? सोचना चाहिए।
इसलिए बड़े-बड़े पाप की प्रवृत्तियों को छोड देना, सर्वथा न करना, इसके लिए प्रतिज्ञा करना और उसका दृढतापूर्वक पालन करना भी सबसे बड़ा धर्म ही है । कई प्रकार की धर्म की आराधना में भी पापों को छोडना अनिवार्य है। आप एक तरफ अट्ठाई-मासक्षमणादि बडी बडी तपश्चर्या भी कर लें और उसके बाद बडी भयंकर पाप की गलत प्रवृत्ति भी करें । इससे आपकी तपश्चर्या बदनाम होती है । तपश्चर्या करनेवाला,
और तपश्चर्या करनेवाले व्यक्ती के कारण धर्म इस तरह अन्योन्य दोनों बदनाम होते हैं। व्यक्ती तो बडा नहीं है, लेकिन धर्म तो महान है। इसलिए धर्म की रक्षा करना, इज्जत बचाना धर्मी के हाथ में है । वह किस तरह कैसे धर्म कर रहा है ? उस पर आधारित है । अतः यह समझकर चलें कि... धर्माराधना करने के पहले... पापों को छोडना, सर्वथा तिलांजली देना सबसे बड़ा धर्म है। आज इस व्याख्या को लोग घोलकर पी गए हैं।
अतः पाप छोड़ने की तरफ लक्ष्य बहुत कम है । हाँ, धर्माराधना-धर्मप्रवृत्ति भी बढती हुई दिखाई देती है, परन्तु सामने दूसरी तरफ पाप प्रवृत्ति घटती हुई भी दिखाई देनी ही चाहिए।
आखिर किससे डरना चाहिए?
पाप से डरना चाहिए? या हमें पाप करते हुए कोई देख ले उससे? इन दोनों में से किससे डरना चाहिए? आज किससे लोग ज्यादा डरते हैं ? सभा में से उत्तर- लोग पाप करते हुए कोइ देख ले उससे ज्यादा डरते हैं । सचमुच पापों से डरनेवाले लोग मात्रा में बहुत कम हैं । जो सत्य मार्ग है उसका आचरण करनेवाले कम? आश्चर्य । अरे ! जो लोग आपको पापकर्म करते हुए देख भी लेंगे तो भी वे देखनेवाले आपका क्या बिगाडेंगे? आपका क्या नुकसान कर लेंगे? क्या देखनेवाले आपको मारने-पीटनेवाले हैं? क्या आपको कोई सजा देनेवाले हैं? जी नहीं । वे ज्यादा से ज्यादा आपकी बात दुनिया को
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आध्यात्मिक विकास यात्रा