SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आ सकती है। सर्वज्ञ शासन में ज्ञान के क्षेत्र की प्रत्येक बात चरम सत्य के आकाश को छूती है और ध्रुव की तरह स्थिर रहती है। डार्विन के विचारों पर विदेशों की धरती पर वही एकवाक्यता नहीं है । डार्विन के विचारों का खण्डन काफी ज्यादा हुआ है । डार्विन के विचारों को सर्वथा गलत ठहराया गया है। उसके विचारों से संसार की व्यवस्था में कहीं किसी भी प्रकार की सुसंगतता नहीं बैठती है । मात्र बन्दर का ही विकास हुआ और बन्दर में से मनुष्य हो गया... तथा जगत के अन्य अनेक प्राणी हैं, उनका विकास हुआ कि नहीं हुआ? यदि इनमें भी विकास हुआ है तो उसके विकसित स्वरूप में आगे क्या और कैसा स्वरूप सामने आया? कोई उत्तर नहीं है । क्या जिस दिन धरती पर बन्दर थे उस दिन इन्सान नहीं था? क्या डार्विन हाँ कह सकता है ? यदि हाँ कहे तो उस दिन का वह मनुष्य किसका विकसित रूप था? और आज भी दोनों ही हैं। यदि विकासवाद का सिद्धान्त सच्चा होता तो सभी को समानरूप से लागू होना चाहिए था। एक को लागू हो और किसी को लागू न हो वह सिद्धान्त नहीं कहलाता है। या जिस क्षेत्र का, जिस विषय में सिद्धान्त बना है उसमें तो पूरा घटना चाहिए। यदि नहीं घटता है तो उसे सिद्धान्त कहना उचित ही नहीं है। कर्माधारित विकास-विनाश __ आत्मा है तो कर्म है और कर्म है तो संसार में आत्मा है। क्योंकि कर्म किसको लगते हैं ? आत्मा को ही लगते हैं । आत्मा के सिवाय अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ पर कर्म लगते ही नहीं हैं। क्योंकि पाप-पुण्य की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति करनेवाला एकमात्र द्रव्य चेतनात्मा ही हैं । अतः जो हेतुपूर्वक क्रिया की जाय इसे ही कर्म कहते हैं । कर्म का करनेवाला एकमात्र आत्मा ही है। आत्मा चेतन है । कर्म जड पौद्गलिक है । अतः किसी अन्य जड पुद्गल पदार्थ पर तो कर्म लग ही नहीं सकते हैं । जब जब कर्मों का प्रमाण आत्मा पर काफी ज्यादा बढ़ जाता है तब तब विनाश ही होता है । आत्मा का ही पतन होता है। और जब जब कर्मों का प्रमाण निर्जरा से घटते-घटते जितना ज्यादा घटता जाता है उतने ही ज्यादा प्रमाण में आत्मा के गुणों का विकास होता है। अतः इसे आध्यात्मिक विकास-उत्क्रान्ति-उन्नति कहते हैं। चेतनात्मा आगे-आगे बढती हुई ऊपर-ऊपर उठती हुई विकास साधती साधती आगे की अवस्था-पद-गुणादि प्राप्त करती ही जाती है। सर्वज्ञ भगवंतों ने ऐसे १४ गुणस्थान निर्धारित किये हैं। ३३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy