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________________ ३३६ |သ r परमात्मा ने निर्जरा कारक बताया है । इसी तरह आभ्यन्तर तप में - प्रायश्चित्त, विनय, सेवा, भक्ती, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्गादि भी आत्मा के कर्मों की निर्जरा कराते हैं । अतः यह निर्जरा धर्म आत्मा पर से कर्मों के आवरण को दूर करते हैं । हटाते हैं । ४) मोक्षलक्षी धर्म — मोक्ष के अनुरूप जो धर्म किया जाता है उसे मोक्षलक्षी धर्म कहा जाता है । हाँ, यह भी निर्जराकारक ही है । इसमें और निर्जरा में विशेष कोई अन्तर नहीं है । निर्जरा के क्षेत्र में कर्म उदय में आकर क्षय हो जाते हैं लेकिन पुनः नए बंध से अभी वह बच नहीं रहे हैं । फिर नए कर्मों का बंध होता है, फिर कालान्तर में निर्जरा करता है । लेकिन मोक्ष लक्षी आत्मा का लक्ष सबसे श्रेष्ठ कक्षा का होता है । वह पुनः बंध न हो इसके लिए सजग - सावधान रहता है। जिससे निर्जरा करते-करते मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ सके । जिससे क्रमशः मोक्ष के नजदीक पहुँचा जा सके । I गुणों के १४ स्थान जैसे जैसे आत्मा अपने कर्मों को क्षय करता जाता है निर्जरा करने से आत्मा के गुणों को प्रकट करते-करते आगे बढता जाता है । आगे बढने की प्रक्रिया में उसके कर्मों की मलिनता जैसे जैसे कम होती जाती है वैसे वैसे स्वगुणों को बढाती बढाती आत्मा मोक्षमार्ग पर अग्रसर होती रहती है । जैसे हम आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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