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आलु-प्याज-लसून-गाजर-मूलादि जो अनन्तकाय हैं, अनन्त जीवों का पिण्ड स्वरूप हैं वहाँ से संसार में जीवों की यात्रा की शुरुआत मान सकते हैं । ये भी वनस्पतिकाय ही हैं । बादर-स्थूल साधारण प्रकार के हैं । इसलिए यहाँ से प्रारंभ करके जीव संसार चक्र में आगे बढता है । आगे-आगे के शरीर धारण करता हुआ आगे बढ़ता है।
आलु–प्याज-लहसून-गाजर-मूला इत्यादि जो अनन्तकाय हैं इस बादर-स्थूल और सूक्ष्म साधारण वनस्पति दोनों में जीवों की अनन्त संख्या की सादृश्यता है। सिर्फ अदृश्य और दृश्य का अन्तर जरूर है । सर्वप्रथम जीव सूक्ष्म से स्थूल की कक्षा में आगे कदम रखता है । अतः महावीर प्रभु ने इन जीवों की हिंसा न करने के लिए आज्ञा दी है। इन आलु–प्याजादि का भक्षण करते समय हमें लगना चाहिए कि यह और किसी की नहीं लेकिन यह तो हमारी ही अवस्था थी। यह हमारी ही भूतकालीन पर्याय है । अतः मैं मेरी ही हिंसा कर रहा हूँ ऐसा लगना चाहिए । तथा जो जीव संसार की विकास यात्रा में आगे बढना प्रारंभ करता है वहीं उस जीव को मैं वापिस रोक +। विकास यात्रा में अवरोध खडा करके बाधा पहँचाऊँ यह कहाँ तक उचित है? अतः उन जीवों को बिना परेशान किये सतत आगे बढने देना चाहिए।
आलु-प्याज की अनन्तकाय की अवस्था में से अर्थात् स्थूल साधारण वनस्पतिकाय में से एक कदम आगे बढकर प्रत्येक वनस्पतिकाय में जीव आता है। और पेड-पौधे के रूप में जन्म लेता है । अबकी बार बहुत बडी स्वतंत्रता प्राप्त हुई। जीव काफी ज्यादा सुखी हुआ। क्योंकि एक ही शरीर में जो अनन्त जीव मिल कर रहते थे उसकी अपेक्षा प्रत्येक वनस्पतिकाय में एक शरीर में एक ही जीव इस तरह अकेले रहने के लिए मिला । अतः उस जीव की सुख-सुविधा काफी बढी, जीव बहुत खुश हुआ। प्रत्येक वनस्पतिकाय में अपने शरीर में अकेले रहने की स्वतंत्रता काफी ज्यादा मिलती
प्रत्येक वनस्पतिकाय में पेड-पौधे के जन्म बिताकर जीव आगे बढा और पानी में गया । अप्काय में जन्म लेकर पानीरूप बना । नदी-समुद्र-झरने-कुँए आदि में रहा। यद्यपि अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना छोटा सा शरीर धारण करके फिर अपनी काया में अकेला स्वतंत्र जरूर रहा लेकिन अनेकों के साथ मिलकर दृश्य बनकर रहा । वहाँ से आगे बढता हुआ जीव पृथ्वीकाय में आया। यद्यपि है तो एकेन्द्रिय में ही लेकिन ... आकार-प्रकार से पर्याय अलग प्रकार की रही । हीरा-मोती-रत्नादि, पाषण की जातियाँ,
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आध्यात्मिक विकास यात्रा