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सुख और प्रकाश में अधिकता-ऊपर-ऊपर के देवलोकवासी देवताओं के क्षेत्र के प्रभाव से और पुद्गलों के शुभ परिणाम के कारण ऊपर-ऊपर के देवलोक के देवताओं को सुख और प्रकाश भी अनन्तगुना ज्यादा से ज्यादा होता है । सुख की मात्रा बढती हुई ही दिखाई देती है।
इन्द्रियों के विषयों में अधिकता-दर से ही इन्द्रियों के विषय जान लेने की शक्ती जो प्रथम कल्पवासी इन्द्रों की होती है उससे ऊपर-ऊपर के देवताओं की अधिक-अधिक ही होती है।
लेश्या विशुद्धि की अधिकता-विचारों-परिणामों की तरतमता को लेश्या कहा गया है। इनमें शुभ और अशुभ दोनों प्रकारों की लेश्याएँ हैं। ३ शुभ और ३ अशुभ मिलाकर ६ लेश्याएँ प्रसिद्ध हैं । १ कृष्ण, २ नील, ३ कापोत, ४ पीत, ५ पद्म और छट्ठी शुक्ल लेश्या । इन ६ लेश्याओं में से देवताओं में जो लेश्याएँ होती हैं उसके बारे में कहते हैं- पीत-पद्म-शुक्ल लेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु ।। ४-२३ ।। तत्त्वार्थकार कहते हैं किवैमानिक देवलोक के पहले तथा दूसरे सौधर्म-तथा ईशान देवलोक के देवता पीत लेश्या वाले होते हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र, तथा ब्रह्मलोक ३, ४, और ५ इन तीन देवलोक में पद्मलेश्या की प्राधान्यता रहती है । और ५ वें के ऊपर के अर्थात् ६ ढे देवलोक से १२ वें तथा, ९ ग्रैवेयक और ५ अनुत्तरवासी सभी देवताओं में शुक्ल लेश्या होती है। लेकिन इस शुक्ल लेश्या की शुद्धि में उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर के देवताओं में विशुद्धि काफी ज्यादा होती है । लेकिन वैमानिक देवों से नीचे की निकाय के देवताओं की तो अशुभ लेश्याएँ भी होती हैं। उससे और नीचे-नीचे उतरते उतरते देवताओं की लेश्या का अशुद्ध का प्रमाण बढ़ता ही जाता है। इसीलिए व्यंतर जाति के भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस आदि की अशुभ लेश्या की वृत्ति के कारण हिंसक प्रवृत्ति देखी जाती है । इससे भी नीचे भवनपति के असुर और उनसे भी नीचे परमाधामी जो भयंकर कृष्ण लेश्या में जीनेवाले हैं उनकी हिंसक वृत्ति आदि सबसे ज्यादा खतरनाक होती है ।
___ गति-शरीर-परिग्रहाऽभिमानतो हीनाः ।। ४-२२॥ देवों की दुनिया भी हमारे जैसी ही है। काफी अंशों में विशेषता जरूर है लेकिन फिर भी चार गति के संसार चक्र में वे भी हैं । अतः अनेक जन्म-मरण-शरीरादि सब है । जहाँ जन्म-मरण-जीवनकर्म-सुख-दुःख-शरीरवेदना-राग-द्वेषादि हो वह संसार ही है। और ये सब देवताओं में भी है अतः वे भी संसारी ही कहलाते हैं । सिर्फ गति काफी
संसार
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