________________
इस तरह १२ देवलोक ९ ग्रैवेयक + और ५ अन्त्तरवासी इन २६ देवताओं के नाम इस सूत्र में दर्शाए गए हैं । देवों की भी अजीबसी दुनिया है । आखिर देवता कितने भी ऊँचे, कितने भी सुखी.... सम्पन्न हो, शक्ती-लब्धिधारी हो लेकिन वे भी है तो इसी संसार में । चार गति के संसार चक्र में उनका भी परिभ्रमण है । वे भी जन्म-मरण धारण करतें हैं । वे भी पापादि की प्रवृत्ति में आसक्त रहते हैं । और किये हुए कर्मों का फल उनको भी भुगतना ही पडता है । वे देवता भी मरकर वापिस तिर्यंच एवं मनुष्यगति में जाते ही हैं । अतः ये भी इसी संसारचक्र में परिभ्रमण करनेवाले चार गति के चक्र में घूमनेवाले एक प्रकार के संसारी जीव हैं। हाँ ... एक बात जरूर है कि ... वैमानिक देवों में सुख-संपत्ति शक्ती-लब्धि काफी ज्यादा है । ऐश-आराम-भोग-विलास की प्रचुरता वहाँ काफी ज्यादा है। लेकिन सभी के लिए नहीं । देवताओं में भी हल्की कक्षा के देव भी होते ही हैं । भूत-प्रेत राक्षसादि के कई प्रकार के देवता इसी कक्षा में गिने जाते हैं। उनको भी कई प्रकार के दुःख वेदना भुगतनी पडती है । अतः वे तो बिचारे कई दुःखी भी
___ भवनपति की निकाय के देवताओं की अपेक्षा व्यंतर जाती के देवता ज्यादा सुखी हैं। ज्यादा ऊँची कक्षा के हैं। और व्यन्तरों से भी ज्योतिषी देवता ज्यादा-ऊँची कक्षा के हैं। और ज्यादा सुखी हैं । इनकी ऋद्धी-सिद्धि-संपत्ति आदि ज्यादा है। ज्योतिषी देवों से भी ज्यादा . . . वैमानिक देवता काफी सुखी संपन्न हैं। ऋद्धिवंत हैं। लब्धिवंत-शक्तीसम्पन्न हैं। और वैमानिकों में भी और ऊपर-ऊपर के देवता ... और ज्यादा ऋद्धि-सिद्धि-लब्धि-शक्ति संपन्न हैं। सुख की मात्रा और बढ़ती ही जाती है तथा दुःख की मात्रा घटती ही जाती है । तत्त्वार्थकार कहते हैं किस्थिति-प्रभाव-सुख-द्युति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रियाऽवधिविषयतोऽधिकाः ।।
४-२१॥ स्थिति-प्रभाव-सुख–प्रकाश = अर्थात् तेज, लेश्या = विचारों में शुभाशुभ तरतमता, इन्द्रियों के विषय, और अवधिज्ञान के विषय ऊपर-ऊपर के देवताओं को और अधिक-अधिक होते हैं। देवताओं की आयुष्य स्थिति
"स्थितिः" ।।४-२९ ।। इस सूत्र में वाचकमुख्यजी ने देवताओं की आयुष्य स्थिति का वर्णन किया है । आयुष्य की स्थिति कम और ज्यादा दोनों प्रकार की होती है । कम से कम स्थिति के लिए शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है 'जघन्य' और ज्यादा से ज्यादा
२१२
आध्यात्मिक विकास यात्रा
पात्रा ...