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________________ नहीं करते । उसी तरह जो जो सृष्टिकर्ता-सर्जनहार हों वह सर्वज्ञ होना ही चाहिए यह भी नियम नहीं बन सकता। चूंकि इन्द्रादि स्वर्गीय देवता भी संकल्पबल या इच्छा मात्र से इन्द्रजाल की रचना में बहुत कुछ रचना कर सकते हैं । नगर के नगर, जो देवताओं के द्वारा निर्माण किये जाते हैं । समवसरण आदि जो देवताओं के द्वारा निर्माण किये जाते हैं । शून्य स्थान में भी क्षण मात्र में संकल्प बल से सारी नगर रचना करनेवाले इन्द्रादि देवता सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि आप ईश्वर को भी संकल्प बल से इच्छानुसार सृष्टिरचना करने में इन्द्रादि सदृष्य स्वीकार करोगे तो ईश्वर भी इन्द्ररूप में सिद्ध हो जाएगा। जबकि इन्द्र तो सिर्फ स्वर्ग का स्वामी है । और आप ईश्वर को त्रिभुवन का स्वामी मानना चाहते हैं । अतः सर्वज्ञ सृष्टि की रचना कर नहीं सकता । ज्ञान के साथ कर्तृत्व की व्याप्ति नहीं बैठती। हमारे में घट–पटादि पदार्थों का ज्ञान है परन्तु घट–पटादि पदार्थों का कृत्रिमत्व हमारे में नहीं है। अतः ज्ञान के साथ कृत्रिमत्व का रहना अनिवार्य नहीं है । अतः बलात् भी ईश्वर में ये दोनों साथ नहीं रह सकते। यदि आप मानते हो कि ईश्वर के सर्वज्ञत्व के बिना संसार की विचित्रता असंभव लगती है तो यह भी ठीक नहीं है । आपने माना है कि विचित्रता विविध प्रकार की है, और ईश्वर को यदि वैसा वैविध्य अपनी सृष्टि में लाना है तो ईश्वर में ज्ञान का वैविध्य होना अनिवार्य है। जैसे एक कुशल रसोइया विविध प्रकार के व्यंजन, रसवती पदार्थों की जानकारी (ज्ञान) रखता है तो ही विविध प्रकार की मिठाई, व्यंजन, आदि रसोई बना सकता है अन्यथा संभव नहीं है । ठीक वैसे ही ईश्वर भी सृष्टि में खूब वैविध्य और वैचित्र्य रखता है। विसदृशता खूब ज्यादा है तो ईश्वर में उन सबका ज्ञान होना आवश्यक है । अतः आप किसी भी तरह तोड़ मरोड़ कर भी सृष्टिकर्तृत्व को सिद्ध करने के हेतु से ईश्वर में सर्वज्ञता सिद्ध करने जाते हैं । यह भी उचित नहीं है । संसार की विचित्रता-विविधता-विषमता का कारण जीवों के अपने कृत कर्म ही स्वीकार कर लो तो फिर प्रश्न ही कहाँ रहा? उसी तरह संसारस्थ जड़ पदार्थों में भी मिश्रण-संमिश्रण, विघटन से वैविध्य है यह स्वभावजन्य ही मान लो तो ईश्वर का स्वरूप तो विकृत होने से बच जाएगा। क्यों आप द्रविड प्राणायाम करते हैं? संसार में बस-स्थावर विकलेन्द्रिय-सकलेन्द्रिय देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्यादि विचित्रता तथा सुख-दुःखादि की विषमता स्वयं जीवों के द्वारा उपार्जित कर्मानुसार है, यह स्वीकारने में बहुत ज्यादा सरलता है । अतः आप सर्वज्ञता से सृष्टिकर्तृत्व या सृष्टिकर्तृत्व से सर्वज्ञता सिद्ध करने का बालिश प्रयत्न न करें। चूंकि कोई एक दूसरे का अन्यथासिद्ध नियतपूर्ववर्ती शरण नहीं है । न ही ये जन्य जनक संसार की विचित्रता के कारण की शोध १४९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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