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________________ होकर रहेगा। और बडा शरीर भी होता है । बकरी शेर–घोडा-ऊँट-हाथी इत्यादि बडे शरीर में बड़े आकार में फैलकर आत्म प्रदेश रहेंगे। हमारे मनुष्य शरीर में चेतनात्मा के प्रदेश पूरी तरह फैलकर सर्वप्रदेश में रहेंगे । इसमें आत्मा के संकोच विकासशील स्वभाव की विशेषता कारणभूत है । जैसे एलास्टिक-रबर को खींचकर लम्बा भी कर सकते हैं और फिर छोड देनेपर संकुचित होकर छोटे से रूप में भी आ जाता है। ठीक वैसे ही * संकोच-विकासशील स्वभाववाला यह चेतन द्रव्य भी स्वशरीर में विस्तृत रूप से फैलकर सर्वदेह में व्याप्त होकर रहता है । अतः यह आत्मद्रव्य छोटे से छोटा सूक्ष्म और बड़े से बडा स्थूल आकार भी धारण कर सकता है। शरीर के अंतर्गत कहाँ कहाँ किन-किन प्रदेशों में फैला हुआ-व्याप्त है ? यह जानने के लिए सुख-दुःख की संवेदना का लक्षण बताया गया है । अतः शरीर के जिस जिस अंग-प्रत्यंग में सुख-दुःख की संवेदना की अनुभूति होती हो वहाँ वहाँ चेतना है । जैसे सिर के बाल खींचते हैं तो दुःख–वेदना की अनुभूति होती है अतः बालों के जड में आत्म प्रदेश फैले हुए हैं। परन्तु उन्हीं बालों को ऊपर ऊपर से काटा जाय तो किसी भी प्रकार की वेदना-नहीं होती है । इससे बालों के बढे हुए ऊपरी भाग में कोई आत्मप्रदेश नहीं है । इसी तरह बढे नाखून को काटने पर किसी प्रकार की सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है लेकिन वही नाखून जड-मूल से काटा जाय तो तीव्र वेदना की अनुभूति होती है । तो वहाँ आत्मप्रदेश प्रसरे हुए हैं । इसी तरह यदि पूरे शरीर पर यदि इत्र लगाने पर या गोशीर्ष चन्दन का.विलेपन करने पर जो सुखानुभूति होती है वह भी आत्मा की प्रतीति कराती है। परन्तु मृत शरीर को किसी भी प्रकार की सुखानुभूति नहीं होती है। और अग्निदाह करने पर किसी भी प्रकार की वेदना की अनुभूति भी नहीं होती है । इससे यह अनुभव में आता है कि-चेतनात्मा की प्रतीति का लक्षण— ज्ञान–दर्शनात्मक चेतना के व्यवहार, तथा सुख-दुःख की संवेदना की अनुभूति से होती है । अतः आत्मा है या नहीं ऐसा कहनेवाले नास्तिकों के लिए यह लक्षण प्रत्यक्ष प्रमाण का काम करता है । इससे आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध है, ग्राह्य है यह स्पष्ट कहा जा सकता है । देहपरिमाणता या अंगुष्ठमात्रता? जैन सर्वज्ञों के सिद्धान्तानुसार आत्मा को स्वदेहपरिमाण ही माना है । परन्तु अन्य वेदान्तादि पक्षों के भिन्न मत भी हैं इस विषय में । रामानुज संप्रदायवादी अंगुष्ठ मात्राकार मानते हुए उसे शरीर के मध्य में हृदयस्थित मानते हैं। कोई दार्शनिक इसे लिङ्ग देह में मानते हैं । अद्वैत वेदान्ती इसे सर्वव्यापी-सर्वमूर्त-द्रव्यसंयोगी मानते हैं । अनन्त ब्रह्माण्ड सृष्टिस्वरूपमीमांसा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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