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बनकर मोक्ष में गए । इस प्रकार सम्यक्त्व प्राप्ति मे मोक्ष गमन तक की उनकी भव संख्या १३ है।
मरुभूति के रूप में प्रथम जन्म में अधिगम भेद से गुरु-उपदेश द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करके, भव भ्रमण को सीसित करते हुए, १० वें भव में भगवान पार्श्वनाथ बनकर मोक्ष में गए।
इस तरह व इसी नियम के आधार पर सभी तीर्थंकरों की एवं मोक्ष में गई अन्य सिद्ध आत्माओं की भव संख्या की गणना की जाती है । सम्यक्त्व की अनुपस्थिति में अर्थात मिथ्यात्व के उदय में जितने भव बीतते हैं, उनकी गणना नहीं की जाती है। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यक्त्व कितना महत्वपूर्ण है, एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति कितनी उपयोगी एवं अनिवार्य है। यह समझकर जैसे भी हो सम्यक्त्व प्राप्त करना ही चाहिए ।
अब प्रश्न यह उठता है कि यह सम्यक्त्व कैसा होता है ? इसका स्वरूप कैसा होता है ? सम्यक्त्व किसे कहते हैं ? सम्यक्त्व की व्याख्या क्या है ? सम्यक्त्व प्राप्ति की रीति एवं प्रक्रिया को हम पहले देख चुके हैं। अतः यहां पर सम्यक्त्व की व्याख्या एवं स्वरूप का विवेचन किया जाता है ।
सम्यक्त्व को व्याख्या एवं स्वरूप
तत्वार्थ. सूत्र में उमास्वातिजी महाराज ने सम्यक्त्व की व्याख्या करते हुए लिखा है कि
तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् ॥१-२॥ तत्व + अर्थ = श्रद्धानं = सम्यग्दर्शन तत्वरूप जो पदार्थ हैं, उनकी दृढ़ श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं । तत्व जो जीवादि पदार्थ हैं उनके यथार्थ स्वरूप की जानकारी एवं मानने की वास्तविक श्रद्धा को सम्यग् दर्शन कहते हैं । अर्थात् तत्वभूत जीवादि पदार्थों की परिणाम जन्य तात्विक श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
जीवादि तत्व कौन से हैं ? यह बताने के लिए आगे के चौथे सूत्र में कहते
हैं कि
कर्म की गति न्यारी