________________
है क्योंकि अनन्त के सामने अब काल या भव की यह संख्या मात्र संख्यात् या असंख्यात् रूप में ही अवशिष्ट रही है। यह बड़ी खुशी की बात है क्योंकि भूतकाल में बीते हुए अनन्त काल के सामने अवशेष या अवशिष्ट काल या भव की संख्या बीते हुए भव या काल के संख्या के मात्र अनन्तवें भाग ही शेष हैं, यह जानकर जीव को अत्यन्त खुशी है । अतः आगामी अर्धपुद्गलपरावर्त काल में संख्यात् या असंख्यात वर्ष या भव भी बिताने पड़े तो भी वे अनन्त नहीं है, और मोक्ष निश्चित एवं सामने है, यह जानकर सम्यक्त्वी जीव का आनन्द अद्भुत एवं अनुपम है । शास्त्रकार महर्षि यहाँ तक कहते हैं कि
सम्मविट्ठि जीवो, गच्छइ नियमा विमाणवासिसु । जइ न विगयसम्मत्तो, अहव न बढाउओ पुधि ।। जं सक्कइ तं कीरइ, जं च न सक्कइ तग्रंनि सद्दहणा । सद्दहमाणो जीवो, बच्चइ अयरामरं ठाणं ॥
धर्मसंग्रह-२-३] -सम्यग्दृष्टि जीव ने यदि सम्यक्त्व प्राप्ति के पहले, परभव का आयूष्य न बांधा हो और सम्यक्त्व का वपन न हुआ हो तो (अर्थात् सम्यक्त्वावस्था में यदि आयुष्य कर्म बांवे तो) निश्चित रूप से वैमानिक देवगति में ही जाता है । वैमानिक देवगति यह अन्य सभी गति को अपेक्षा उच्च सुख की श्रेष्ठ गति है।
दूध में शक्कर या सोने में सुगन्ध मिलाने के समान, यदि सम्यग् दर्शन के साथ-साथ द्रव्य-क्षेत्र-काल व भाव आश्रयादि, जब जब जितना शुभ धर्मानुष्ठान करना शक्य (संभव) हो, उतना यदि साथ करता जाय, जिसमें विशेष ज्ञान, चारित्र, तपादि की साधना हो, उसे करता रहे, और अशक्य के प्रति यथा शक्ति करने की सद्हणा-श्रद्धा पूरी बनाए रखे, और सम्यक्त्वपूर्वक आगे की साधना एवं भावना बनाये रखने वाला ऐसा श्रद्धावान् सम्यक्त्वी जीव अवश्य ही अल्पकाल या भवों में अजर-अमर पद मोक्ष को अवश्य ही प्राप्त करता है । यह सम्यक्त्व प्राप्ति का महाफल है।
सम्यक्त्व प्राप्ति से ही भव संख्या का निर्णयशास्त्रों में ऐसा नियम बताया गया है कि जब से जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है तभी से उसके भवों की गणना की जाती है। जब मोक्ष प्राप्त करता है, तब तक
कर्म की गति न्यारी