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बाह्य निमित्त से हो या बिना बाह्य निमित्त के हो, दोनों ही प्रकार में प्रधान (मुख्य) अंतरंग निमित्त है ।
अंतरंग निमित्त की शुद्धता के बिना, बाह्य निमित्तादि मिलने पर भी, सम्यक्त्व नहीं होता है । इसलिए अंतरंग निमित्त की शुद्धता परम आवश्यक है । बाह्य निमित्त रूप देव-गुरु धर्मोपदेश आदि की प्राप्ति भी अंतरंग निमित्त को शुद्ध या जागृत करने में सहायक बनती है । इस तरह अनादि मिथ्या दृष्टि जीव बाह्य निमित्त के सद्भाव या अभाव में, निसर्ग या अधिगम दोनों ही मार्ग से सम्यक्त्व प्राप्त करता है । दोनों ही तरह से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है । बाह्य निमित्त द्वारा जो अंतरंग निमित्त प्रकट होता है, उसे अधिगम सम्यक्त्व कहते हैं । लेकिन दोनों में ही जीव का भव्यत्व परिपक्व होना मुख्य आधार है ।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि का कार्य ही उपरोक्त — १. निसर्ग, २. अधिगम द्वारा होता है । अतः सम्यक्त्व की प्राप्ति निसर्ग और अधिगम दो प्रकार से होती है । जब जंगल में लगा हुआ दावानल बढ़ते-बढ़ते, ऊसर भूमि तक पहुँचते ही, अपने आप (स्वमेव ) शान्त हो जाता है, तब दावानल की शान्ति में कोई बाह्य निमित्त नहीं है । ठीक इसी तरह अनादि मिथ्यादृष्टि जीव में जो मिथ्यात्व अनादिकाल से चला आ रहा है, वह मिथ्यात्व तथा भव्यत्व परिपक्व होने पर, यथा प्रवृत्ति आदि तीनों करण करते हुए, ग्रंथि भेद करके जो सहज स्वाभाविक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे बाह्य निमित्त भाव रूप नैसर्गिक - निसर्ग सम्यक्त्व कहते हैं । लेकिन जंगल का वही दावानल यदि किसी के द्वारा पानी, रेत, धूल आदि डालकर बुझा दिया जावे, ठीक इसी तरह किसी अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व को देव-गुरु धर्मोपदेश की वाणी रूपी पानी से शान्त कर दिया जाय और मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उपशम या क्षयोपशम से जो औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे बाह्यनिमित्त सद्भावरूप अधिगम सम्यक्त्व कहते हैं ।
सम्यक्त्व प्राप्ति का महाफल
अनन्त पुद्गल परावर्तकाल के परिभ्रमण में अनादिकाल के इस संसार में मिथ्यादृष्टि जीव ने जब तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया था, तब तक उसका संसार
कर्म की गति न्यारी
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