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होता है, उससे मिथ्यात्व तिमिर नाश रूपी, जो यथार्थ सत्य तत्त्व का जो श्रद्धान् होता है, उसका आनन्द जन्मान्ध की अपेक्षा भी अनेक गुना होता है । ऐसे अनेक दृष्टान्त शास्त्रों से बताए गए हैं ।
एक अन्य दृष्टान्त ऐसा भी है कि सशक्त शक्तिमान योद्धा भी भयंकर संग्राम में युद्ध करते-करते अन्त में हारने की स्थिति में, घोर निराशा के सागर में डूब जाता है। ऐसे में योगानुयोग अन्तिम क्षण में तीर के सही निशाने पर लगने से, शत्रु राजा की मृत्यु होते ही, उसे युद्ध में विजय रूपी जो आनन्द का अनुभव होता है, उससे भी अनेक गणा आनन्द, भव्य जीव को संसार संग्राम में मोहनीय कर्म की प्रकृति रूपी सेना के साथ युद्ध करते करते हारने के अन्तिम क्षण में अपूर्वकरण आदि योगों से राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेद करके, मानो दुश्मन के दुर्भेद्य किले को भेदकर विजय प्राप्त करता है । उसी तरह ग्रन्थि भेद करने रूपी दर्शन मोहनीय एवं अनन्तानुबंधी कषाय आदि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का भेद करके, सम्यक्त्व प्राप्ति के विजय से जो आनन्द होता है, वह जीवन का प्रथम आनन्द होता है ।
इस प्रकार के कई दृष्टान्त शास्त्रों में दिये गये हैं। यद्यपि ये दृष्टान्त सर्व आंशिक तुलना भी नहीं कर सकते हैं, फिर भी उस आनन्द को समझने के लिए अनुमान जन्य स्थिति का परिचय करा सकते हैं। स्वाभाविक है कि अनादिकाल से जिस जीव ने जिस सम्यक्त्व को कभी प्राप्त नहीं किया था, उसे उस प्रकार के सम्यक्त्व को प्राप्त करके, सदा के लिए संसार से मुक्त होकर, मैं मोक्ष में एक दिन निश्चित ही जाऊँगा, इस प्रकार के दृढ़ संकल्प से उसे अभूतपूर्व आनन्द होता है ।
सर्व प्रथम जीव कोनसा सम्यक्त्व प्राप्त करता है ? इसके बारे में शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यथाप्रवृत्ति आदि तीन करणों के द्वारा सर्वप्रथम औपशमिक प्रकार का सम्यक्त्व प्राप्त करता है।
कोई जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी प्राप्त करता है । सिद्धान्तकारों का मत है कि मिथ्यात्व गुण स्थानक से जीव सीधे चौथे, अविरत सम्यक् दृष्टि गुण स्थानक पर आता है । यद्यपि चौथे गुण स्थानक पर व्रत, विरति, पचक्खाण न होते हुए भी उसकी श्रद्धा सम्यग् होती है ।
कर्म की गति न्यारी