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આત્માના આઠ ગુણ અને તેના આવરક
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इस तरह ८ कर्मों की क्रम विचारणा दोनों तरीकों से की गई है । प्रस्तुत "कर्म की गति न्यारी' नामक पुस्तिका में घाती-अघाती के दृष्टिकोण को अपनाया है । अतः प्रमुख रूप से कर्म ग्रन्थादि से प्राप्त क्रमानुसार तीसरे क्रम पर वेदनीय कर्म का क्रम प्राप्त था, तथापि हमने यहां पर मोहनीय कर्म का विषय लिया है ।
अनन्त चारित्र-यथाख्यात स्वरूप
पूर्व पुस्तिका में आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुणों का विवेचन किया गया है । अनन्त ज्ञान-दर्शन गुण के बाद आत्मा का अत्यन्त महत्वपूर्ण तीसरा गुण हैंअनन्तचारित्र : अनन्तचारित्र गुण को ही स्वभाव रमणता, स्वगुण रमणता, यथाख्यात चारित्र, आदि भिन्न-भिन्न नामों से कहा जाता हैं । वस्तु का स्व-स्वरूप में ही रहना अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। यदि स्वरूप ही बदल जाय तो वस्तु विकृत हो जाती है । अनादि अनन्त काल तक आत्म द्रव्य का अस्तित्त्व सर्वथा नष्ट न होने देने का काम यह गुण करता है । अतः इस गुण ने आत्मा का स्वस्वरूप बनाए रखा है। आत्मा स्व-स्वरूप से सर्वथा राग-द्वेषादिभाव रहित है। सर्वथा विषयकषाय वृत्ति रहित है । अर्थात् वीतराग-वीतद्वेष तथा निष्कषाय एवं निविषय स्वरूप
कर्म की गति न्यारी