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-हे ऋषभ जिनेश्वर ! तू ही मेरा प्रीतम (भगवान) है, तेरे बिना किसी अन्य को मैं पति (भगवान) नहीं मानता हूँ। इस तरह वीतराग को भगवान मानकर अन्य किसी को भगवान रूप नहीं मानने का शुद्ध सत्य विचार उन्होंने प्रीतम की उपमा की कल्पना से दर्शाया है । इस तरह "सब भगवान एक हैं" "सब धर्म एक है" "सभी आत्मा एक है" इत्यादि मान्यताएं अनभिगृहिक मिथ्यात्वी की है । यह किसी भी रूप में सम्यग् नहीं है। अतः प्रयत्न विशेष से ऐसी मिथ्याधारा दूर करके शुद्ध सम्यक्त्व की मान्यता प्राप्त करना ही लाभदायक है।
३. प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व
आभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह या हठाग्रह । इस प्रकार के कदाग्रह में यह सत्य और असत्य, तत्त्व और अतत्त्व, धर्म और अधर्म, ईश्वर और अनीश्वर, आदि का स्वरूप यद्यपि मनुष्य जानता है फिर भी वह कदाग्रहपूर्वक अपने हठाग्रह को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है । कदाग्रह की बुद्धि के कारण अहंकार आदि के वश होकर, जान बूझकर सत्य का लोप करके, असत्य का ही आग्रह रखता है। उसे आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहते हैं । असत्य की पकड़ में अहंकार मुख्य काम करता है । आभिग्रहिक मिथ्यात्वी और आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी में अन्तर इतना ही है कि पहला सत्य को न जानते हुए असत्य की पकड़ रखता है, जबकि आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी सिद्धांत का सत्य स्वरूप को जानते हुए भी, सत्य का लोप करके, अभिमान आदि के कारण, कदाग्रहवश असत्य की पकड़ रखता है। शास्त्रों में जैसे गोष्ठामाहिल की बात आती है, वर्तमानकाल में भी कई लोग ऐसे है, जो सिद्धांत का सही स्वरूप जानते हुए भी, साम्प्रदायिक वत्तियों के वश होकर, अपने पक्ष और गच्छ आदि के वश होकर, असत्य की प्रारूपण करते हैं। उदाहरणार्थ जिनदर्शन-पूजा आदि का आगम शास्त्रों में उल्लेख होते हुए भी व्यवहार में असत्य की प्ररूपणा करना कि “यह सब झूठ है, गलत है इसमें पाप है।" शास्त्रों में आलू, प्याज आदि कई प्रकार के अनन्तकाय बताए गए हैं, शास्त्र पढ़कर वैसा मानते भी हैं, फिर भी आचार व्यवहार में अभक्ष्यअनन्तकाय आदि का भक्षण करते हैं। स्वाभिमान-मोह-ममत्ववश होकर, अपनी बात को वापिस ले लेने में अपमान होने या मानखंडित होने का भय लगता है । इसलिए भी असत्य पकड़ मजबूत रखता है। मेरा ही कहा हुआ सत्य है ऐसा कदाग्रह रखता हैं। जो मेरा कहा हुआ है वही सत्य है, परन्तु जो सत्य है वह मेरा नहीं है। MIGHT IS RIGHT BUT RIGHT IS NOT MIGHT, ऐसी उनकी
कर्म की गति न्यारी
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