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________________ हैं वे यदि श्रद्धा के विषय में कोरे हैं तो उनकी जानकारी निरर्थक हो जाती है। लाभदायी नहीं हो पाती है। ठीक इसी तरह श्रद्धा के पक्ष में रहने वाला साधक यदि श्रद्धा या अपनी मान्यता सही रखते हुए भी ज्ञान या जानकारी यदि सही नहीं रखता है तो वह भी एकान्ती, एक पक्षीय बनकर निष्फल सिद्ध होता है। बिना सम्यग् ज्ञान के उसकी श्रद्धा अन्ध-श्रद्धा बन जाती है। आत्मा-परमात्मा मोक्ष आदि तत्वों में ज्ञान रहित, सिर्फ मानने रूप श्रद्धा रखने मात्र से, अंध-श्रद्धालु बना हुआ, वह जल्दी बदल भी जाता है । उसे कोई कुतर्क-वितर्क पूर्वक बुद्धि कौशल से अतत्व विषय में समझाएगा तो वह उसकी तरफ झुकते हुए देरी नहीं करेगा। ऐसे अंध-श्रद्धा वाले जीवों को बहुत जल्दी बदला जा सकता है। कई बार चमत्कार आदि निमित्तों से श्रद्धा रखने वाले जीव भी जो कि सम्यग् ज्ञान रहित श्रद्धावान होते हैं, वे भी ऐसे बुद्धि चातुर्य के कुतर्क-वितर्क के जाल में फंसकर अपनी श्रद्धा छोड़ देते हैं । इसी आधार पर ऐसे ही अंधश्रद्धालु लोगों का धर्म परिवर्तन कराने का कार्य कई लोग करते हैं । उसका फायदा उठाते हैं। श्रद्धा अल्पजीवी नहीं होती है। वह सदाकाल नित्य एवं स्थायी होती है। शर्त इतनी ही है कि सम्यग, ज्ञान जन्य एवं उस पर आधारित होनी चाहिए। अतः जानना और मानना, उभय अन्योन्य सहयोगी एवं सहोत्पन्न होनी चाहिये । हम जितना और जैसे जानें, वह ज्ञान भी सम्यग् होना चाहिये और उसके आधार पर हमारी श्रद्धा भी सम्यग् होनी चाहिए। सम्यग् और श्रद्धा उभय की उपयोगिता जानना और मानना इनके द्विक् संयोगी चार भेद किये जाते हैं । (१) जानना और मानना। (२) मानना और जानना। (३) न जानना और न मानना।। (४) मानना पर न जानना । उदाहरण के लिए हम इन्हें चार प्रकार के पुत्रों के दृष्टान्त से समझ सकते हैं-आ.श्री. कैलाससागर सूरिझोन मंदिर ११४ श्री महावीर जैन आराधना करका की गति न्या
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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