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(२) रोचक सम्यक्त्व-सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान के वचन में पूर्ण श्रद्धा रखे, उसमें पूर्ण रुचि भी हो एवं जिनोक्त धर्म की तप-जप-विधि-क्रिया आदि करने की तीव्र रूचि हो, परन्तु बहुत कर्मी जीव होने के कारण वैसी क्रियाएँ कर न सके, परन्तु रुचि रूप जो श्रद्धा रहती है, उस सम्यग् क्रिया के रुचि रूप भाव को रोचक सम्यक्त्व कहते है । लेकिन इसमें प्रवृत्ति वैसी नहीं कर पाता है। ऐसा रोचक सम्यक्त्व अविरत सम्यग् दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानक वाले को होता है । जैसेश्रेणिक महाराजा आदि को था। .
(३) दीपक सम्यक्त्व-स्वयं मिथ्यादृष्टि या अभवी जीव हो, फिर भी अपनी उपदेश शक्ति द्वारा अन्य जीवों को सम्यक्त्व भाव उत्पन्न कराने में निमित्त बनता है, दूसरों की यथार्थ श्रद्धा की रुचि जगाने में सहायक बनता है, तथा अन्य जीवों पर जीवाजीवादि तत्वों को समझाते हुए, यथार्थ प्रकाश डाल सके, ऐसे मिथ्यात्वी या अभवी जीवों का सम्यक्त्व दीपक सम्यक्त्व कहलाता है । जिस तरह स्वयं दीपक के तले अन्धेरा होता है और वह दूर तक प्रकाश पहुँचा कर वस्तुओं को प्रदर्शित करता है, ठीक उसी तरह . का कार्य मिथ्यात्वी अभवी जीव करते हैं । अर्थात् वे खुद सम्यक्त्वी न होते हुए भी, स्वयं मिथ्यात्वी होते हुए भी अपनी बुद्धि शक्ति एवं उपदेश से अन्य भव्य जीवों में सम्यक्त्व जगा सकते हैं। यहां पर व्यवहार नय के कार्य कारण भाव का अभेद मानकर मिथ्यात्वी अभव्य जीवों में उपदेश प्रधान होने से दीपक रूप सम्यक्त्वी कहलाते हैं। वस्तुत: वे मिथ्यात्वी हैं या अभवी भी हैं जैसे अंगारमर्दकाचार्य स्वयं अभव्य जीव होते हुए भी उपदेशक रूप से ऐसे दीपक सम्यक्त्वी कहे जाते थे।
३-४-५ प्रकार के सम्यक्त्व में मात्र थोड़ा सा ही अन्तर है। तीसरे प्रकार के सम्यक्त्व में मात्र चौथा सास्वादन मिलाने से चौथा प्रकार होता हैं, और चौथे प्रकार के सम्यक्त्व में पांचवा वेदक सम्यक्त्व मिलाने से पांचवा प्रकार बनता है। इस प्रकार १. क्षायिक, २. क्षायोपशमिक, ३. औपशमिक ४. सास्वादन ५. वेदक । इस तरह पांच प्रकार के सम्यक्त्व बताए गए हैं।
____E. क्षायिक सम्यक्त्वखीणे बंसणमोहे, तिविहंमि वि भवनिमआण भूमंमि । निपच्चवायमउलं सम्मत्त खाइयं होइ ॥
कम को गति न्यारी
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