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________________ (१) एक प्रकार से जिनोक्त तत्वेषु रूचिः शुद्ध सम्यक्त्वमुच्यते । सर्वज्ञ वीतरागी जिनेश्वर भगवंतों ने बताए हुए, जीव-अजीवादि तत्वों में अज्ञान, शंका, भ्रम, शंका एवं मिथ्याज्ञानादि रहित निर्मल रुचि अर्थात् श्रद्धा रूप आत्म परिणाम विशेष को सम्यक्त्व कहते हैं। जिन कथित तत्वों में यथार्थपने की बुद्धि या वास्तविक श्रद्धारूप भाव या तथापि शुद्ध तत्वों की श्रद्धा (तत्वार्थ शृद्धानं) को बिना किसी भेद के एक प्रकार का शुद्ध सम्यक्त्व कहते हैं। २. (अ) निसर्ग और अधिगम इन दो तरीकों से जो सम्यक्त्व उपार्जन किया जाता है, उसे इन दो प्रकार में गिना गया है। - २. (ब) निश्चय सम्यक्त्वनिच्छयओ सम्मत्त, नाणाइमयप्प शुद्ध परिणामो। इयरं पुणं तुह समये, भणियं सम्मत हेहिं ।। ज्ञान-दर्शन-चारित्र मय आत्मा का जो शुद्ध परिणाम अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों की एकता रूप जो आत्म परिणाम विशेष होता है उसे ही निश्चय नय की दृष्टि से सम्यक्त्व कहते हैं । आत्मा और आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुण भिन्नभिन्न नहीं हैं परन्तु अभेद भाव से एक ही है। अभेद परिणाम से परिणत आत्मा तद्गुण रूप कहलाती है । जैसा जाना वैसा ही त्याग भाव हो और श्रद्धा भी तद्नुरूप हो ऐसे उपयोगी की आत्मा वही ज्ञान, वही दर्शन, वही चारित्र रूप है । ऐसी रत्नत्रयात्मक आत्मा, अभेद भाव से देह में रही हुई है। रत्नत्रयी के शुद्ध उपयोग में वर्तती हुई आत्मा ही निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। ऐसा निश्चय सम्यक्त्व सातवें अप्रमत्त गुणस्थानक के पूर्व कहीं नहीं होता है।' व्यवहार सम्यक्त्व उपरोक्त निश्चय सम्यक्त्व में हेतुभूत सम्यक्त्व के ६७ भेदों का ज्ञान, श्रद्धा व क्रिया रूप से यथाशक्ति पालन करने को व्यवहार सम्यक्त्व कहते हैं । मुनिदर्शन, जिनभक्ति महोत्सव, जिन दर्शन पूजन, तीर्थयात्रा, रथयात्रा आदि शुद्ध हेतुओं से उत्पन्न होते श्रद्धारूप सम्यक्त्व को व्यवहार सम्यक्त्व कहते हैं । ये हेतु सहायक निमित्त हैं। कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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