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मिला है । सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का मंथन करके श्रुतज्ञानी, श्रुतकेवली बनते हैं जो कि केवली न होते हुए भी केबली सदृश प्रतिपादन कर सकते हैं ।
श्रुतिज्ञान का क्षयोपशम
श्रुतज्ञान के ऊपर आये हुए कर्म के प्रावरण को श्रुतज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । यह श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान को ढक देता है जिससे श्रुत शास्त्र का ज्ञान अल्प प्रमाण में रहता है। जिसका जितना श्रुतज्ञानावरणीय कर्म उदय में होगा उतना ही उसे श्रुत-शास्त्र का ज्ञान कम होगा । ठीक इसी तरह जिसका जितना श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ज्यादा होगा उतना ही उसे श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्र का ज्ञान ज्यादा प्राप्त होगा । अतः शास्त्रज्ञान की न्यूनाधिकता का आधार श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम पर है । भूतकाल के इतिहास में ऐसे अनेक महापुरुषों के नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित है, जो महान श्रुतज्ञानी, शास्त्रज्ञ एवं मर्मज्ञ कहे जाते थे । महान् ज्ञानी गीतार्थं गिने जाते थे । उदाहरणार्थ - उमास्वाती महाराज, सिद्धसेनदिवाकरसूरि महाराज, हरिभद्रसूरि महाराज, -हेमचन्द्राचार्य महाराज वादिदेवसूरि श्रादि अनेक महापुरुषों के नाम इतिहास में प्रसिद्ध है । हेमचन्द्राचार्य महाराज को अगाध शास्त्रज्ञान के आधार पर कलिकाल सर्वज्ञ की उपाधि दी गई है अर्थात् इस कलियुग के सर्वज्ञ तुल्य विद्वान माने जाते थे ।
पाँच ज्ञानों में दूसरे क्रम पर स्थित यह श्रुतज्ञान भी अपना वैशिष्ट्य रखता है । परन्तु इस पर प्राच्छादित श्रुतज्ञानावरणीय कर्म ने इसका प्रमाण घटा दिया है । विशेष रूप से श्रुत-शास्त्र ज्ञान ज्ञानी एवं ज्ञानोपकरण की प्राशातना से उपार्जित किया हुआ ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को ढक देता है । परिणामस्वरूप पुस्तक ग्रन्थ एवं शास्त्रादि का ज्ञान नहीं बढ़ पाता है । एतदर्थ श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अर्थात् नाश करने का लक्ष्य बनाना पड़ेगा, और उसके लिए श्रुतज्ञान की उपासना करनी पड़ेगी । श्रुतज्ञान की उपासना के लिए श्रुतज्ञान के बताये गये १४ या २० प्रकार का श्रालम्बन लेना पड़ेगा ।
तीर्थंकर भगवंतो को जन्म से ही श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हुमा रहता हैं । अत: वे जन्मत: ही पूर्ण क्षतज्ञानी होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञान तीनों ही पूर्ण रूप से होने के कारण तीर्थंकर भगवान जन्म से तीन ज्ञान के स्वामी कहलाते
कर्म की गति न्यारी
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