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अर्थात् अरिहंत भगवान अर्थ से देशना देते हैं और निपुण ऐमे गणधर भगवान उस देशना को सुनकर शासन के हितार्थ उसे सूत्र बद्ध रूप से गुंथते हैं । वही श्रुतज्ञान के रूप में प्रवृत्त होता है। गुरु शिष्य की परम्परा में वह श्रुतज्ञान दीर्घ काल तक चलता रहता है । गुरु शिष्य को कंठस्थ कराते रहते थे और शिष्य उस श्रुतज्ञान को मुखोद्गत रखते थे। शिष्य गुरु से पूछते थे कि भगवान ने क्या बताया है ? और गुरु कहते थे कि भगवान ने इस प्रकार बताया है। जैसा कि आगमों का अवलोकन करने से उपरोक्त बात सही अर्थ में देखी जा सकती है। सुधर्मास्वामी पौर जम्बस्वामी दोनों गुरु शिष्य थे। शिष्य जम्बूस्वामी गुरु से पूछते थे कि"तेणं भगवया किं अक्खायं ?" उन भगवान ने क्या कहा है ? गुरु सुधर्मास्वामी प्रत्युत्तर में कहते थे कि-"तेणं भगवया एवं प्रक्खायं" उन भगवान ने ऐसा कहा है। इससे यह स्पष्ट दिखाई देता है कि सर्वज्ञ केवली भगवान से ही सुना हुआ ज्ञान गुरु शिष्य की परम्परा में चलता रहता है। कुछ काल तक प्रबल स्मरण शक्ति के प्राधार पर सारा ही श्रुतज्ञान स्मृति पटल पर ही अंकित रहा। परन्तु स्मृति की न्यूनाधिकता के कारण कालान्तर में जाकर वही श्रुतज्ञान ग्रन्थ रूप में अंकित हुआ। ग्रन्थाकार श्रुतज्ञान को ही शास्त्र नाम दिया गया है। उसे ही आगम शास्त्र भी कहते हैं । अतः आज हमारे पास जितने भी शास्त्र है । उन सभी पर सर्वज्ञ केवलज्ञानी की मुहर लगी हुई है। जैसे किसी निर्मित वस्तु पर Made in India आदि की लगी हुई छाप से वस्तु कहां की है यह पता चलता है, ठीक वैसे ही श्रुतज्ञान के शास्त्रों पर सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवान की मुहर लगी हुई है अतः शास्त्रों का मूल स्रोत सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवान है। इसलिए शास्त्र या श्रुतज्ञान सर्वज्ञोपदिष्ट कहा जाता है।
सर्वज्ञसदृश-श्रुतकेवली.... जैसे अनंतज्ञान से केवलज्ञानी सर्वज्ञ कहलाते हैं, वैसे ही समस्त श्रुतज्ञान का सूक्ष्मतम अवलोकन करने वाले श्रुतकेवली के रूप में गिने जाते हैं । सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवान ने अपने अनंत ज्ञान से पदार्थ का जो स्वरूप बताया है, वैसा ही स्वरूप श्रुतकेवली. अपने श्रुतंज्ञान के आधार पर बता सकते हैं क्योंकि श्रुतकेवली भी परोक्ष रूप से सर्वज्ञ की बात को ही कहते हैं। सर्वज्ञ केवलज्ञानी द्वारा उपदिष्ट जो श्रुतज्ञान परम्परा में चलता हुआ श्रुतकेवली के पास प्राया है, उसी श्रुतज्ञान के आधार पर श्रु त केवली केवलज्ञानी जैसी ही प्ररुपणा कर सकते हैं । इस विषय में एक दृष्टांत शास्त्रों में पाया है।
एक बार स्वर्गाधिपति इन्द्र महाराज महाविदेह क्षेत्र में गये । जहां सीमंधरस्वामी भगवान समवसरण में बिराजमान होकर देशना दे रहे थे । इन्द्र ने भी समवसरण में बैठकर प्रभु की देशना श्रवण की। देशना समाप्ति के बाद प्रभु से
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कर्म की गति न्यारी