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________________ पांचवा प्रवचन-५ ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और क्षय परम आदरणीय-वंदनीय दर्शनीय नमस्करणोय-स्मरणीय चरम तीर्थपति श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी के चरण कमल में नमस्कार पूर्वक ... ज्ञानाद्विदन्ति खलु कृत्यमकृत्यजातं, ज्ञानाच्चरितममलं च समाचरन्ति । ज्ञानाच्च भव्य भविनः शिवमाप्नुवन्ति, ज्ञानं हि मूलमतुलं सकलधियां तत् ॥ ज्ञान की विशिष्ट महिमा बताते हुए महापुरुषों ने प्रस्तुत श्लोक में कहा है कि-कृत्य और अकृत्य अर्थात् करने योग्य क्या है और न करने योग्य क्या है इसका विवेक मनुष्य ज्ञान से ही प्राप्त करता है । ज्ञान से करणीय प्रकरणीय को जानता है। ज्ञान से ही निर्मल पवित्र चारित्र का प्राचरण किया जाता है । ज्ञान से ही भव्य जीव मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ज्ञान ही सर्व प्रकार की श्री शोभा का मूल कारण है। जगत् की अतुल लक्ष्मी का मूल ज्ञान हैं। इस तरह ज्ञान की महिमा बड़ी भारी हैं । ज्ञान तीसरे नेत्र के समान है। जैसे सूर्य अपने प्रकाश से चमकता है वैसे जीव अपने ज्ञान से चमकता है । प्रतः ज्ञान भी दूसरे दिवाकर सूर्य के समान गिना जाता है। यह ऐसा प्राभूषण है कि जिसकी जगत् में कोई चोरी नहीं कर सकता। सोने हीरे के आभूषण की चोरी चोर कर सकते हैं परन्तु आत्मस्थ ज्ञान की चोरी कोई नहीं कर सकता। कुमत अन्धकार को दूर करने वाला ज्ञान है। ज्ञान जगत्चक्षु-लोचन गिना जाता है। भ्रम-संशयादि का निवारण ज्ञान से होता है। नीति रूपी नदी के निकलने का मूल पर्वत ज्ञान है । ज्ञान ही कषायों का शमन करने में समर्थ है। ज्ञान ही पाप निवृत्ति का मूल मन्त्र है। मन को पावन-पवित्र करने वाला ज्ञान है। चंचल मन को स्थिर करने में सहायक ज्ञान है । स्वर्गापवर्ग के सोपानों की सीढी रूप ज्ञान है और ज्ञान ही मोक्ष तक पहुँचाने की सीढी है । इस तरह ज्ञान की महिमा अपरंपार है । जितनी महिमा गाएं उतनी कम ही है। यहां तक कहा है कि बहु कोडो वरसे खपे, कर्म प्रज्ञाने जेह । ज्ञानी श्वासोच्छवासमां, कर्म खपावे तेह ॥ कर्म की गति न्यारी २४५
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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