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________________ हैं। अतः बुद्धि ज्ञान से भिन्न स्वतन्त्र नहीं है। मति, स्मृति, चिंता, संज्ञा, अभिनवबोध प्रादि बुद्धि के ही पर्यायवाची शब्द है। मतिज्ञान के ३४० भेद आगे दिखाये गये हैं। उनम से जितने भेदों का मतिज्ञानावरणीय कर्म बाँधा होगा उतने भेदों का मतिज्ञान नहीं होगा, अर्थात् प्राच्छादित रहेगा, और जिन भेदों का मतिज्ञाना. वरणीय कम नहीं बाँधा होगा उन प्रकारों का ज्ञान जीवों में प्रकट रहेगा । श स्त्रों में प्रगल्भ प्रतिभा सम्पन्न एवं महान बुद्धिशाली बुद्धिनिधान कई महापुरुषों के दृष्टान्त पाते हैं। प्रार्थ वज्रस्वामी, हेमचन्द्राचार्य, महा महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज, बुद्धि निधान महाअमात्य अभयकुमार एवं रोहककुमार आदि के दृष्टांत है। असाधारण बुद्धिमान महापुरुष आर्य वज्रस्वामी-श्रेष्ठिपुत्र धनगिरि और सुनंदा का पुत्र वज्रकुमार बाल्यवय में ही विरक्त भाव वाले बनें। पिता धनगिरि की दीक्षा के बाद दो-तीन साल की आयु का बालक वज्रकुमार भी पूर्व जन्म के ज्ञान-वैराग्य के संस्कार से बचपन में ही विरक्त बना । चारित्र प्राप्ति के हेतु से बालक ने रोना शुरू किया। माता सुनंदा उसके प्रति रुदन से उब गई थी। एक दिन पति साधु धनगिरि के भिक्षा के लिए घर आने पर सुनदा ने बालक को दे दिया। मुनि महाराज बालक को लेकर उपाश्रय पाये एवं गुरु महाराज को अपर्ण कर दिया साधु बनाने के लिए अपरिपक्व काल होने से गुरु महाराज ने साध्वियों के उपाश्रय के शय्यातर को सौंप दिया। झूले में सुलाए गए बालक को साध्वियों के बीच रखकर शय्यातर मालकिन अपने कार्य में लग जाती थी। शास्त्रों का अध्ययन करती साध्वियां जब जोर से पाठ करती थी तब झूले में रहा हुआ बालक वज्रकुमार बड़े गौर से एवं ध्यान से सुनता था। पूर्व जन्म के क्षयोपशमानुसार मिली हुई बड़ी तेज बुद्धि के कारण बालक को झूले में सुनते-सुनते ही कई शास्त्र याद हो गए। इस तरह दो-तीन साल बीत चुके, बालक को अनेक शास्त्र याद हो गए । ६ वर्ष की आयु में राजदरबार में हुए न्यायानुसार प्राचार्यश्री ने वज्रकुमार को दीक्षा देकर साधु मुनिराज वज्रस्वामी बनाये । आचार्यश्री अपने अनेक बड़े-बड़े साधुनों को शास्त्रों के पाठ समझाते थे। एक दिन पाठ के समय आचार्यश्री को शौच के लिए जंगलं जाना पड़ा ऐसे समय में बालमुनि वज्रस्वामी गुरु के स्थान पर बैठ गए और बिना शास्त्र देखे ही बड़े-बड़े स धुनों को पढ़ाने तथा समझाने लगे। उपाश्रय के द्वार पर अं ये हुए गुरु महाराज ने यह दृश्य देखा तथा बालमुनि के मुंह से शास्त्रों के पाठ सुनकर आश्चर्यचकित रह गए । प्रागे वज्रस्वामी को वाचक पद से विभूषित किया । बाल्यवय में ही कितनी असाधारण बुद्धि-मति थी, उसका यह उदाहरण है। कर्म की गति न्यारी २६७
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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