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________________ इस तरह मतिज्ञान के ३४० भेद कुल होते हैं, उन प्रत्येक पर प्रावरण पाने से उतने ही (३४०) भेद मतिज्ञानावरीय कर्म के होते हैं । ज्ञान क्षयोपशम के आधार पर उदय में आएगा और कर्म के उदय से ढक जाएगा। "श्रुतं मति पूर्वकं" सूत्र के नियमानुसार श्र त ज्ञान भी मतिज्ञान पूर्वक ही होता है। चूंकि श्र तज्ञान में पढ़ने, लिखने, श्रवण करने, विचारने आदि में पांचों इन्द्रियां तथा मन तो वे ही उपयोग में आते हैं जो कि मतिज्ञान में प्रयोग में आते हैं । अतः श्र तज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है। इसलिए मतिज्ञान के क्षयोपशम के साथ श्र तज्ञान का भी क्षयोपशम बढेगा। इस तरह ये दोनों साथ रहते हैं। परन्तु यह भी है कि मतिज्ञानावरणीय कर्म बढेगा तो श्र तज्ञानावरणीय कर्म भी बढेगा । श्र तज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होते हुए भी उसके अपने स्वतंत्र प्रकार हैं। श्रु तज्ञान के १४ तथा २० भेद भी होते है। जो पहले दर्शाए गए हैं। उतने ही उनके माच्छादक-आवरक श्रु तज्ञानावरणीय कर्म के भेद होते हैं । श्रु तशास्त्रादि की विराधना, ज्ञान-ज्ञानी तथा ज्ञानोपकरण की आशातना तथा विराधना से जीव तथा प्रकार का श्रु तज्ञानावरणीय कर्म उपार्जन करता है। परिणाम स्वरूप प्रज्ञान, बुद्धिहीन मूर्ख, मन्दमति, तथा विस्मरण शक्ति वाला बनता है। इस संबंधि एक रसिक दृष्टान्त इस प्रकार है १२ घडी के १२ वर्ष हुए अच्छे अच्छे ज्ञानी विद्वान भी किस तरह भारी ज्ञानावरणीय कर्म बांध लेते हैं उसका एक प्रसंग इस प्रकार है-पाटलीपुत्र नगर में दो भाईयों ने आहती दीक्षा ग्रहण की। जैन साधु बने। एक भाई की बुद्धि बड़ी तेज थी अतः ज्ञान प्रच्छा चढ़ता था। क्षयोपशम काफी अच्छा होने के कारण अभ्यास में रुचि अच्छी रहती थी। काफी पढ़ते गए। कुछ वर्षों में अच्छे विद्वान बन गए। ५०० शिष्य उनके हो गए । गुरू महाराज ने प्राचार्य पद से विभूषित किया । बहुश्रु त ज्ञानी गीतार्थ बने । दूसरी तरफ दूसरा भाई मन्दमति था । ज्ञानाभ्यास की रुचि नहीं जगती थी। प्राहार-पानी गोचरी लाकर खा-पीकर मस्त सोता रहता था । प्रमादी जीवन बन गया था। __आचार्यश्री की समझाने की कला एवं ज्ञान की उपस्थिति तथा स्मरण शक्ति काफी अच्छी थी । परिणाम स्वरूप कई अन्य जिज्ञासु लोग भी समझने के लिए पाते थे। प्रश्न पूछते थे । सूरिजी अच्छी तरह समझाते थे। शिष्यों तथा जिज्ञासुप्रों को २५६ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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