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नांच परदे डाल दिये जाय तो उन परदों में से कितना प्रकाश बाहर निकलेगा ? सीक उसी तरह आत्मा के अनन्त ज्ञान गुण को इन पांच परदों (प्रावरणों) ने ढक दिया है. अब कितना ज्ञान (प्रकाश) उन परदों (प्रावरणों) के बाहर निकलेगा ? अल्प अंश मात्र ही निकल पायेगा। जो परदे जितने जाडे मोटे होंगे वह ज्ञान (प्रकाश) उतना ही ज्यादा सर्वथा ढक जाएगा, दब जाएगा। अतः प्राज हमारा अवधिज्ञानविधिज्ञानावरणीय कर्म से सर्वथा दब ही गया। परिणाम स्वरूप हमें यहां बैठे हए मन और इन्द्रियों की मदद के बिना दूर सुदूर का कुछ भी नहीं दिखाई देता । उसी बाट मनःपर्यवज्ञान भी मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म से सर्वथा दब चुका है, ढ़क हो गया है। जिसके कारण आज हम किसी के मन की बातें अंश मात्र भी जान नहीं पाते । कौन क्या सोच रहा है ? कौन किसके बारे में क्या विचार कर रहा है ? इत्यादि हम कुछ भी नहीं जान पा रहे हैं। उसी तरह आज हमारा केवलज्ञान जो प्रात्मा में पड़ा है वह भी केवलज्ञानावरणीय कर्म से सर्वथा ढक गया है। सर्वथा. दब चुका है। जिसके कारण आज हम अनन्त ब्रह्माण्ड के अनन्त द्रव्यों को, उनके अनन्त धर्मों को तथा मनन्त पर्यायों को यहां बैठे नहीं जान सकते । नहीं समझ सकते । प्रतः यह प्रत्यक्ष अनुभव से निश्चित हो गया कि आज हमारे में ये तीनों प्रावरणीय कर्म पूरे उदय में है। चूंकि बांधे हुए हैं ये कर्म शास्त्र में सर्वघाती प्रकृति के रूप में गिने गए हैं। जिन्होंने इन कर्मों का सर्वया क्षय कर दिया हो उन्हें वे ज्ञान संपूर्ण रूप से प्रकट होते हैं। सब कुछ साफ साफ दिखाई देता है । जानकारी में आता है । परन्तु कर्म के उदय वाले को अंश मात्र भी नहीं दिखाई देता। ..
मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान को ढकता है। तथाप्रकार के पाप करके ज्ञान-ज्ञानी तथा ज्ञानोपकरण की जो भी पाशातना विराधना की हो उससे जो मतिज्ञानावरणीय कर्म बांधा हो, उसके उदय में प्राने से मतिज्ञान का क्षयोपशम नहीं बढ़ता । मति की मंदता मिलती है । ज्ञानेन्द्रियां पूरी नहीं मिलती या कमजोर मिलती है । ज्ञानेन्द्रियां पूरा काम नहीं करती। स्मरण शक्ति नहीं बढ़ती। पढ़ने की रुचि भी न होवे । और पढ़े तो याद न रहे। इत्यादि कई प्रकार के मतिज्ञानावरणीय कर्म के उदय होते हैं। जितने मतिज्ञान के प्रकार हैं उतने ही मतिज्ञानावरणीय कर्म के प्रकार होंगे । निश्चित ही है कि उपार्जन किया हुप्रा मतिज्ञानावरणीय कर्म उदय में आने पर उस उस प्रकार का मतिज्ञान ढक जाएगा । अत: मतिज्ञान के कुल भेद ३४० हैं तो ३४० प्रकार का मतिज्ञानावरणीय कर्म भी बनेगा। तथा जो इनमें से जो जीव जितने कर्म बांधेगा वह उतने प्रकार से मतिज्ञान का आवरण अनुभव करेगा। उदाहरणार्थ स्पर्शेन्द्रियावग्रह मतिज्ञान, श्रवणेन्द्रिय धारणा मतिज्ञान, बहुविध धारणा घ्राणेन्द्रिय मतिज्ञान, वैनयिकी बुद्धि मतिज्ञान आदि मतिज्ञान के ३४० भेद इस तरह होते हैं । जिसे संक्षेप में निम्न तालिका से समझ सकते हैं :
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कर्म की गति न्यारी