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दूसरी तरफ यदि आप ईश्वर को सर्वगत-सर्वव्यापी मानते हैं तो किस तरह मानते हैं ? शरीर से या ज्ञान से ? एक शरीर से तो कोई भी शरीरधारी सर्वव्यापी हो नहीं सकता और होगा तो मनुष्यादि भी हो जायेंगे । चूंकि ये भी शरीरधारी हैं । अच्छा तो शरीर से ही ईश्वर सर्व लोक व्यापी-तीनों लोक व्यापी हो जायेगा । तो फिर दूसरे बनाने योग्य निर्मेय पदार्थों के लिए स्थान ही नहीं रहेगा तो बनायेगा कहां ? यदि ईश्वर एक स्थान पर रहकर ज्ञान योग से सर्वव्यापी है ऐसा कहें तो हमारा सर्वज्ञ पक्ष सिद्ध होता है । परन्तु सर्वज्ञ वह है जो स्थित पदार्थों को मात्र जानता है । सर्वदर्शी समस्त ब्रह्माण्ड के स्थित पदार्थों को देखता मात्र है परन्तु बनाता नहीं है । आप ज्ञान योग से सर्वज्ञ मानते जानोगे तो फिर ईश्वर सृष्टि बना नहीं सकेगा ! क्योंकि पहले सष्टि बनाई कि पहले देखी या जानी ? यदि पहले से ही ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वव्यापी, सर्वगत मानते हो तो फिर ईश्वर ने देखा ही क्या ? जबकि बनाया कुछ भी नहीं है तो देखेगा कैसे ? और यदि बर्माकर बाद में देखने की बात श्राप स्वीकारते हैं तो ईश्वर में सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शीत्व-सर्वव्यापित्व स्वीकारना व्यर्थ है। दूसरी तरफ स्वीकारने पर वेद विरोध आएगा। वेद में ईश्वर को शरीर की अपेक्षा से सर्वव्यापी कहा है। श्रुति भी ऐसा कहती है कि ईश्वर सर्वत्र नेत्रों का, मुख का, हाथों का और पैरों का धारक है । इस तरह इधर बाघ और उघर नदी जैसे स्थिति खड़ी होती है।
सर्वगतत्व पक्ष भी सिद्ध नहीं हो सकता
दूसरी तरफ सशरीरी ईश्वर को सर्वगत-सर्वव्यापी मानें तो फिर कड़े-करकट मल-मूत्र वाले स्थानों में तथा अशुचिपूर्ण-हाड़-मांस-रक्त रुधिर की नदियां जहां बहती हैं ऐसी नरक पृथ्वीयों में भी ईश्वर को मानना पड़ेगा जो कि ईश्वरवादी को भी इष्ट नहीं होगा।
अच्छा यदि आप ईश्वर को ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत-सर्वव्यापी मानते हैं तो जैनों का अभिष्ट पक्ष आप स्वीकारते हैं। जैन भी १३वें सयोगी केवली गुणस्थान पर पाए हुए सर्वज्ञ केवलज्ञानी को एक स्थान पर विराजमान रहते हुए भी और देहधारी होते हुए भी सर्वज्ञानी-सर्वदर्शी मानते हैं। एक स्थान पर स्थित होकर भी समस्त-लोक-अलोक को अपने ज्ञान का विषय बना लेते हैं। अच्छा है आप भी हमारी तरह ही ईश्वर को ज्ञान से सर्वज्ञ-सर्वव्यापी-सर्वगत स्वीकार कर लीजिए। हमें आपत्ति नहीं है परन्तु आप को आपत्ति यह आएगी कि सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि योगी, साधक, तपस्वी भी ज्ञानी होते है, ज्ञान प्राप्त
कर्म की गति न्यारी