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________________ निश्चित नहीं है तो फिर हम धर्मादि भी करके क्या करें। नहीं-नहीं हम करने वाले भी कौन होते हैं ? धर्म भी करवाना होगा तब ईश्वर करा देगा। इस तरह तो सभी अनन्त जीव निष्क्रिय हो जाएंगे। और तो ईश्वर कर्तृत्ववादी कहते ही हैं कि संसार निष्क्रिय है ईश्वर की इच्छा के आधीन ईश्वर की अांख के इशारे पर नाचने वाली कटपुतली मात्र है । शेर-सिंह-चीत्ता बाघ भी मनुष्य को फाड़कर खाएंगे और यही कहेंगे कि हम क्या करें ? ईश्वर की इच्छा ही ऐसी थी। फिर मनुष्य को भी ईश्वरेच्छा को मान देना चाहिए । अर्थात् मौत के मुंह में जाने के लिए डरना नहीं चाहिए। लेकिन प्रत्यक्ष सिद्ध बात है कि मृत्यु से सभी डरते हैं। कोई भी मरने के लिए तैयार नहीं है । संसार की हालत बडी विचित्र बन जाएगी । एक ही ईश्वर और अनन्त जीवों की व्यवस्था कैसे कर पाएगा । आप कहेंगे हजार हाथ है ईश्वर के वह सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी मानोगे तो अशरीरी मानना पडेगा । शरीरधारी तो सर्वव्यापी हो नहीं सकता। और अशरीरी मानोगे तो सृष्टि की रचना कैसे करेगा। और यदि अशरीरी भी सृष्टि रचना कर सकता है ऐसा कहोगे तो सभी अशरीरी मुक्तात्मा भी सृष्टि करने लग जाएंगे। तो एक सृष्टि कर्ता ही नहीं अनेक सृष्टि का म नने की आपत्ति आएगी। . दूसरी तरफ जो राग-द्वेष ग्रस्त मनुष्य है उसमें इच्छा नहीं रहनी चाहिए । और इच्छा रहती भी है तो अपनी खुद की इच्छा तो मनुष्य के लिए कोई काम नहीं पाएगी। क्योंकि मनुष्य की इच्छा तो चलती ही नहीं है जो कुछ चलती है वह सिर्फ ईश्वर की ही एकमात्र इच्छा चलती है दूसरी तरफ इच्छा रागस्वरूप है रागादि भाव कर्म जन्य है। मनुष्य कर्म युक्त है। वह कर्म युक्त संसार में कर्मोपार्जित इच्छा प्रादि से त्रस्त है। अनेक इच्छामो से ऊब गया है । जबकि कर्म रहित है । कर्म नहीं तो राग-द्वषादि नहीं और राग-द्वेषादि नहीं तो इच्छा भी नहीं ठहर सकती। इच्छा नहीं तो सृष्टि नहीं । यह मानना पडेगा। अन्यथा ईश्वर में इच्छा मानों और रागादि कर्म को न मानों यह घर का न्याय कहां से चलेगा। तो फिर ईश्वर को भी इच्छा के कारण रागादि युक्त, कर्म संयुक्त मानना पडेगा। और ऐसा मानने पर ईश्वरत्व ही चला जाएगा। वह हमारे जैसा सामान्य मनुष्य सिद्ध हो जाएगा। अरेरे ! छोटे बच्चे पर हजार मन वजन उठाने की तरह हिमालय जितनी कितनी आपत्तियां आएंगी। पार ही नहीं है। कर्मफल दाता ईश्वर क्यों ? पहले तो ईश्वर सृष्टि की रचना करे । फिर जीवों को स्व-इच्छानुसार प्रवृत्ति कराये । अच्छी-बुरी सभी प्रवृत्ति ईश्वर करावे। उस में बेचारे जिस जीव ने खराब प्रवृत्ति की उसे पाप लगा । उस पाप कर्म का भागीदार कराने वाला ईश्वर भी नहीं कर्म की गति न्यारी ८७
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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