________________
है ? फिर तो वेद सृष्टि की रचना करता ऐसा होता । लेकिन ऐसा न करके भी ईश्वर को वेद का दास अनुचर बना दिया । अरेरे ........! सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ कह कर भी ईश्वर की लगाम वेद के हाथ में देकर ईश्वर को अश्व का रूप दे दिया | यह क्या ईश्वर की कम विडंबना है ? एक तरफ वेद को भी नित्य मानते हैं तथा दूसरी तरफ ईश्वर को भी नित्य मानते हैं । जब दोनों नित्य हैं तो फिर ईश्वर को वेद में देखकर सृष्टि बनाने का प्रश्न ही कहां खड़ा होता है ? तो फिर किसी नित्यता मैं दोषापत्ति श्राएगी। जिसको आपने सर्वज्ञ - सर्वविद् कहा उसे भी प्रापने वेदाधीन कर दिया - तो फिर ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहा यह सिद्ध हुआ । और सर्वज्ञता ईश्वर में ही है यह पक्ष भी पकड़कर रखना चाहते हो तो फिर वेदपारतन्त्र्य से ईश्वर को मुक्त करो । हाश ! भगवान की भक्तों के हाथ में कैसी गति हो रही है ? ईश्वर की इतनी विकृत विडंबना और किसी अन्य ने नहीं परन्तु उसी के द्वारा उत्पन्न की सृष्टि के मानवी ने कर दी । तो यह भी तो सर्वज्ञ ईश्वर जानते ही होंगे तो फिर उनको ईश्वर ने उत्पन्न ही क्यों किया ? ईश्वर के द्वेषी भी इस संसार में कई हैं । जो ईश्वर को ही गालियां देते है । ईश्वर का अस्तित्व ही न मानने वाले नास्तिक है उनको ईश्वर ने क्यों बनाया ? क्या मैं जिसको बनाऊँ वही मुझे न माने ? मेरे से ही पैदा हुआ मेरा ही बेटा मुझे न माने ? और क्या ईश्वर यह जानते हुए भी अनिष्ट सृष्टि को निर्माण करे जो ईश्वर का ही स्वरूप विकृत करे । ऐसा भी नहीं है कि ईश्वर का सारा स्वरूप अनीश्वरवादियों ने ही निर्माण किया है । नहीं । अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादियों ने तो बड़ा उपकार किया है । उन्होंने तो ईश्वर के विकृत स्वरूप को ठीक किया है, सुधारा है । परस्पर विरोधी बातों को हटाकर ईश्वर स्वरूप की विकृतियां हटाकर स्वरूप शुद्ध बनाया है । इसीलिए निरीश्वरवादी जैन आदि ने ईश्वर को सृष्टि कर्ता संहर्ता के रूप में नहीं अपितु परम शुद्ध पूर्ण परमात्म स्वरूप माना है । तो ईश्वरकर्तृत्ववादियों ने इन निरीश्वरवादियों को नास्तिक कह दिया । अरे भाई ! नास्तिक तो किसे कहते हैं ? जो आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वों को न मानें उन्हें सही अर्थ में चार्वाक एक ही सबसे बड़ा सही अर्थ में नास्तिक है । जैनादि तो परम प्रास्तिक हैं । चुकि ये आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, मोक्षादि सभी तत्त्वों को मानते हैं फिर नास्तिक कहना भी कहने वाले की अल्पज्ञता को सिद्ध करता है ।
में
दूसरी तरफ देखें तो चार्वाक नास्तिक को भी ईश्वर ने ही निर्माण किया है । तो क्यों निर्माण किया ? क्या त्रिकालविद् सर्वज्ञ होते हुए भी ईश्वर यह नहीं जानते थे कि भविष्य में ये क्या करेंगे ? मेरा स्वरूप ही नहीं मानेंगे । यह समझकर ईश्वर ने निर्माण ही नहीं किये होते तो कितना अच्छा होता ? परन्तु यही
कर्म की गति न्यारी
८४