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________________ अच्छा दूसरी बात यह है कि यदि ईश्वर वेद में लिखे पाठानुसार सृष्टि निर्माण करता है, सृष्टि सदा सर्वदा एकसी रहनी चाहिए। सभी युगों में सृष्टि एक जैसी ही बननी चाहिए । लेकिन नहीं सभी युगों में सृष्टि की साम्यता भी तो स्वीकार नहीं की है। द्वापर युग में सृष्टि ऐसी थी, त्रेता युग में कुछ अलग थी, सत् युग में जैसी सृष्टि थी वैसी आज कलियुग में नहीं है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है । जबकि जैसी पूर्व कल्प में थी वैसी ही सृष्टि यदि वेद में देखकर ईश्वर बनाता है तो हमेशा एक सरीखी सृष्टि होनी चाहिए थी । लेकिन यहां भी विसंगतता है । अतः यह पक्ष भी युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता है । सृष्टि में विषमता और विचित्रता क्यों ? अच्छा चलो मान भी लें कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने यह सृष्टि निर्माण की है तो ईश्वर ने सृष्टि में सैंकड़ों विसंगतियां क्यों रखी हैं ? ऐसी विषम सृष्टि क्यों निर्माण की है ? जबकि सर्वज्ञ ईश्वर दयालु है । परम करुणालु है । दया का भण्डार और करुणा का सागर है । और कुछ ईश्वर में मानें या न मानें परन्तु ईश्वर में राग-द्वेष रहितता तो माननी ही पड़ेगी। चूँकि मनुष्य-पशु-पक्षी सभी राग-द्वेष ग्रस्त जीव है । और यदि ईश्वर भी रागादि युक्त हो तो ईश्वर में क्या श्रेष्ठता रही ? फिर तो रागादि भावों से युक्त मनुष्य-पशु-पक्षी मोर ईश्वर रागादि की कक्षा में सभी समान समकक्ष हुए। यदि रागादि रहते हुए भी ईश्वर को ईश्वर - महान - सर्वज्ञ कहेंगे तो उसी रागादि वाले मनुष्य को ईश्वर कहने में क्या आपत्ति है ? यदि मनुष्य को ईश्वर कहेंगे तो मनुष्य की सृष्टि कर्तृत्व शक्ति नहीं है । वह तो कुम्हार की तरह घड़े ही बना सकता है । नदी - नद- वृक्ष पर्वत पृथ्वी समुद्रादि बनाने में सक्षम नहीं है । यदि रागादिमान ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहें तो सर्व सृष्टि एकसी एक सरीखी क्यों नहीं है ? सृष्टि में विषमता क्यों भरी पड़ी है ? क्या दयालु करुणालु ईश्वर भी एक को राजा एक को रंक, एक को अमीर, एक को गरीब, एक को सुखी एक को दुःखी इत्यादि क्यों बनाता है । ऐसी विषम सृष्टि ईश्वर क्यों बनाता है ? यदि राग-द्वेष के प्राधीन ईश्वर हैं तो ही यह विषमता और विचित्रता है । यदि श्राप ना कहते हैं कि रागादि नहीं है तो विचित्रता-विषमता जो जगत् में प्रत्यक्ष गोचर है इसका क्या कारण है । यहां ईश्वरवादी उत्तर देते हैं कि ईश्वरेच्छा बलीयसी । सृष्टि की रचना करने के पीछे ईश्वर की इच्छा ही बलवान तत्त्व है । अच्छा श्रापने इच्छा तत्त्व मान लिया तो अब आप यह बताइये कि ईश्वर बड़ा कि इच्छा ? श्राप कहेंगे ऐसा भी क्या प्रश्न खड़ा हो सकता है ? ऐसा प्रश्न करना भी प्रश्नकर्ता की मूर्खता है । अच्छा भाई मैंने मेरी मूर्खता भी मान ली परन्तु उत्तर तो दीजिए। चूंकि आप ईश्वर को कर्म की गति न्यारी ७४
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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