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पश्चाताप शुरू हुआ है, पश्चाताप की अग्नि में १५ दिन उपवास-(पासक्षमण) मनशन करके अशुभ पापकर्म क्षय करके आठवें सहस्रार स्वर्ग में गया।
भगवान पार्श्वनाथ जब गृहस्थाश्रम में थे तब घोड़े पर बैठ कर नगर के बाहर गए हुए थे। कमठ तापस जो पंचाग्नि तप कर रहा था। उसके जलाए हुए काष्ठों में एक सर्प जल रहा था। अपने ज्ञान से देखकर पार्श्वकुमार ने प्राज्ञा देकर सैनिक के द्वारा एक जलता हुप्रा बांस निकलवाया और उसमें से सांप को बाहर निकाला, जो अर्धा तो जल चुका था अर्धदग्ध देहवाले उस सर्प को नमस्कार महामन्त्र सुनाया। सांप की चेतना ने शान्ति का अनुभव किया। मरकर देव गति में जाकर नागराज धरणेन्द्र देव बना ।
प्रतः स्वर्ग प्राप्त करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जैन धर्म ने देवगतिस्वर्ग को इतना ज्यादा महत्त्व नहीं दिया है जितना वैदिक परम्परा ने दिया है। प्रतः देवगति भी संसार चक्र की चार गतियों में से एक है। वहां भी जन्म-मरण आदि सतत है। देवगति से अक्सर मरकर ९०% देवताओं के जीव तिर्यंच-पशुपक्षी की गति में जाकर जन्म लेते हैं।
एक स्वर्गीय देव जो मनुष्य लोक में तीर्थ यात्रा करने निकला था, कि उसने पर्वतमाला की गुफा में एक ज्ञानी मुनि महात्मा को देखा। वहां जाकर वंदननमस्कार कर बैठा । तपस्वी मुनिराज प्रपनी ध्यान साधना समाप्त करके बैठे थे । देव ने पूछा-हे भगवन् ! कृपा करके मेरी मामामी गति क्या होगी? वह बताइए। महात्मा ने अपने ज्ञान से उपयोग पूर्वक देख कर बताया कि हे देव ! देव भव से मृत्यु के बाद तुम्हारी तियंच गति होगी । तुम तिर्यंच गति में जाकर बन्दर की योनि में जन्म लोगे । बन्दर बनकर पर्वतमाला के वृक्षों पर कूदते रहोगे। बन्दर का भव सुनते ही देव बड़ा दुःखी हुमा। अरे रे....! इतना सुन्दर देव का जन्म, और यह स्वर्गीय सुख-भोग सब कुछ छोड़कर, मरकर तिर्यंच गति में बन्दर बनना पड़ेगा । उसके लिए असह्य हो गया ।
देव गति से हीरे-सोने में जन्म देव गति से मरकर पशु-पक्षी बनना पड़े यह तो फिर भी अच्छा है। चूकि पंचेन्द्रिय पर्याय में तो हैं। लेकिन शास्त्रकार महर्षि यहां तक कहते हैं कि देव गति का जीव देव जन्म से मरकर ऐकेन्द्रिय पर्याय में हीरे-मोती-सोने-चांदी आदि में भी जन्म लेता है। ये भी तिर्यंच गति में ही कहलाते हैं। गति तिर्यंच की ही है,
कर्म की गति न्यारी