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१० भव देवगति में किए, २ भव नरक गति में किए, और एक भव तिर्यंच पशु-पक्षी की गति में किया है । इस तरह १४+१०+२+१= २७ भव किये हैं । इस तरह चारों गति में गए हैं । तीर्थंकर की कक्षा का जीव और वह भी कर्मसत्ता के आधीन होकर अपनी २७ भव परम्परा में दो-दो बार नरक गति में जाकर पाया है तो क्या हम आज दिन तक नरक गति में या तिर्यच गति में गये ही नहीं हैं ? क्या हम हमेशा एक ही गति में रहे हैं ? नहीं, सम्भव ही नहीं है । क्या हम दो सद्गति में ही रहे हैं ? दुर्गति में गये ही नहीं ? सम्भव ही नहीं है । भूतकाल में हमारे और सभी के अनन्त भव हो चुके हैं । अनन्त जन्म-मरण करते हुए इस भव संसार में भटक रहे हैं।
अनादि-अनन्त भव संसार
प्रत्येक जीवमात्र का भूतकाल का संसार अनन्त काल से चला आ रहा है । सभी के अनन्त भव (जन्म-मरण) बीत चुके हैं । संख्यात या असंख्यात भव वाला कोई नहीं है । समस्त शास्त्रों में एक मरूदेवी माता के सिवाय ऐसा एक भी दृष्टान्त दूसरा नहीं मिलता है । सिर्फ संख्यात अर्थात् गिनती के ही भव हुए हों ऐसा आज एक भी जीव नहीं है। उसी तरह सिर्फ असंख्यात ही जन्म हुए हों ऐसा भी कोई जीव नहीं है । सभी जीवों के भूतकाल में अनन्त भव हो चुके हैं। इसमें भव की संख्या भी देखें तो अनन्त की है और काल की संख्या का, वर्षों की संख्या का विचार किया जाय तो वह भी अनन्त है। एक-एक जन्म ५-२५-५०-१००, १०००, लाख, करोड़ वर्षों का बीता है । अतः भव संख्या से भी बड़ी काल संख्या सामने आएगी। प्रतः शास्त्रकार महर्षि ने काल संख्या को समझने के लिए "अनन्तानन्त पुद्गल परावर्त काल" बताया है । अनन्त उत्सर्पिणीयां, अनन्त अवसर्पिणीयां बीत चुकी हैं। इतना ही नही, अनन्त कालचक्र भी बीत चुके हैं। इतना ही नहीं यह बहुत छोटी संख्या होगी, अतः अनन्तानन्त पुद्गल परावर्त काल बीत चुका है। हमारी आत्मा का अस्तित्व अनादि-अनन्त काल से है।
भव अर्थात् संसार, और भव अर्थात् जन्म-मरण । जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है । अतः "जातस्य ध्र वो मृत्यु" कहा गया है । संसार का स्वरूप ही जन्म-मरण का है । "जिस तरह जातस्य ध्र वो मृत्यु" अर्थात् जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित कही गई है । उसी तरह संसार परिभ्रमण अवस्था में "मृतस्य ध्र वो जन्म" कहना ही पड़ेगा । अर्थात् मरने के बाद जन्म निश्चित ही है।
कर्म की गति न्यारी