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________________ अनुष्ठान से क्षय नहीं होता । वह तो भोगना ही पडे . उसे निकाचित कर्म बन्ध कहते हैं । आत्मा के साथ तीव्रतर-तीव्रतम कषायादि के कारण इतना भयंकर गाढ कर्मबन्ध हो जाता है कि अब वह किसी भी हालत में फल-विपाक दिये बिना न छूटे वह निकाचित जाति का कर्मबन्ध कहलाता है । उदाहरणार्थ भगवान महावीरस्वामी ने १८वें त्रिपृष्ठ वासुदेव के जन्म में शय्यापालकों के कान में तपाया हुआ गरम-गरम शीशा डलवाकर जो भयंकर निकाचित कर्म बांधा था आखिर उसका परिणाम यह आया कि २७वं महावीरस्वामी के अन्तिम जन्म में महावीर के कान में खीले ठोके गए । मगध के सम्राट मगधाधिप श्रेणिक ने शिकार में ऐसे कर्म बांधे कि जिसे भोगने नरक में जाना पड़ा। उपरोक्त चार दृष्टांतों को चित्र से समझाया गया है। चारों व्यक्ति सूईयो अलग करने का ही प्रयत्न कर रहे हैं फिर भी प्रयत्न तथा समय में अन्तर है । वैसे ही चार प्रकार के कर्मबन्ध होते हैं । उनके बारे में यह विवेचन है। जीव अपने मन्द-तीव्र-तीव्रतर तथा तीवतम प्रकार के विविध कषायो के आधार पर उपरोक्त चार में से भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म बंध करता है । तथा जिस प्रकार का कर्म बंध करता है उसी प्रकार की काल अवधि-स्थिति रहती है। उसी तरह जीव कर्मफल भी भोगता है । बंधा हुआ कर्म भिन्न-भिन्न चार अवस्थाओं में रहता है। कर्म की अवस्थाएंकर्म बंध के ही आधार पर बन्ध-उदय-उदीरणा-तथा सत्ता की अवस्था का अाधार है। बंधा हुआ कर्म इन चार अवस्थाओं में रहता है । (१) बंध (२) उदय (३) उदीरणा तथा (४) सत्ता । बंध ही नहीं होता तो उदय-उदीरणा कहां से आते ? Nepar ००० JAVAN सत्ता १७४ कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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