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इस तरह तीन प्रकार की संख्या मानी गई है। (१) जो गिनी जा सके वह संख्यात है। (२) जो गिनती के बाहर हो वह असंख्यात है। (३) और जो अगणित हो वह अनन्त है । इन तीन संख्याओं की व्यवस्था चार गति में की गई है । (१) देव गति में असंख्य जीव हैं। (२) नरक गति में भी असंख्य जीव है । (३) तियंच (पशुपक्षी) की गति में अनन्त जीव हैं। (४) जबकि मनुष्य गति में सबसे कम संख्यात ही जीव है। संख्यात अर्थात् गिनती की जा सके उतनी सीमा तक है । तथा असंख्यात जहां गिनती दुरूह है, संख्यात की सीमा के बाहर की, परे की असंख्यात है। अनन्त तो जहां गिनती किसी भी स्वरूप में संभव ही नहीं है। असंभव है। वह अनन्त हैं। सभी का स्वर्गवास (स्वर्ग में वास) ही होता हो तो नरक गति में असंख्य जीवों की संख्या कहां से प्राइ ? उसी तरह तिथंच गति में अनन्त जीवों की संख्या कहां से प्राइ ? जीव तो चारों गति में परिभ्रमण करता है। किसी एक ही गति में स्थिर नहीं रहता है । एक गतिवाद किसी ने भी स्वीकारा नहीं है और स्वीकारा भी हो तो सुसंगत सिद्ध नहीं होगा।
एक गतिवाद की विसंगतता
यह जीव जिस योनि में जन्मा है उसी योनि में ही सदाकाल रहता है । पुनः पुनः मरकर फिर से उसी योनि में उसी स्वरूप में जन्म लेता है। अर्थात् भूतकाल में जैसा जन्म था मृत्यु के बाद भविष्य में वैसा ही जन्म मिलता है। यदि वह मनुष्य है तो मनुष्य ही बनेगा। घोड़ा मरकर घोड़ा ही बनता है। गधा मरकर गधा ही बनता रहेगा। चाहे वह हज़ार लाख या करोड़ों अरबों जन्म करे तो भी वह बारबार घोड़ा ही बनेगा । गधा गधा ही बनेगा। ऐसी एक गतिवाद पक्ष की मान्यता हैं। इनका कहना है कि जीव का एक गति से दूसरी गति में गत्यन्तर-जात्यन्तर नहीं होता है।
प्रश्न ऐसा खड़ा होता है कि......"यदि घोड़ा मरकर पुन: घोड़ा ही बनता है तो प्रथम घोड़ा बना ही कहां से ? अनादि काल से उस जीव का घोड़े के स्वरूप में ही अस्तित्व मानना पड़ेगा। और ऐसा मानेमे तो वह जीव घोड़े के स्वरूप कैसे पाया ? कब प्राया ? उस प्रात्मा का एकेन्द्रीय पर्याय से पंचेन्द्रिय पर्याय तक विकास हा कैसे ? फिर तो उत्थान और पतन का सिद्धान्त ही समाप्त हो जाएगा। विकासवाद का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। दूसरी तरफ सीधा ही जीव पंचेन्द्रिय पर्याय में स्थलचर के रूप में कहाँ से पा गया ? जबकि जीव की अनन्त संख्या पंचेन्द्रिय पर्याय में नहीं है । अनन्त गुनी संख्या एकेन्द्रिय पर्याय में है । एकेन्द्रिय
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कर्म की गति न्यारी