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________________ सोचने की क्रिया करने के लिए-विचारने के लिए जीव बाहरी वातावरण में से मनो वर्गणा को खिंचकर उसका पिण्ड बनाता है। उसे हम मन कहते हैं। अतः मन आत्मा नहीं है । मन आत्मा से भिन्न पौद्गलिक पिण्ड है। अजीव है । (८) कार्मण वर्गणा-जीव राग-द्वेष-कषायादि के आधीन होकर आश्रव मार्ग में स्थित होकर बाहरी वातावरण में से कर्म योग्य कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं के समूह को खिचता है। ग्रहण करता है उसे कार्मण वर्गणा कहते है । यही कार्मण वर्गणा कर्म रूप में परिणमन होती है । अर्थात् कार्मण वर्गणा का ही कर्म बनता है । कर्म बनाने योग्य पुद्गल परमाणुओं के समूह को कार्मण वर्गणा कहते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्म पौद्गलिक है। जड़ है । आत्मा पर बाहरी आवरण विशेष है । सूक्ष्मतम होने के कारण अदृश्य है। यह १६ महावर्गणाओं में ग्रहण योग्य अष्ट महावर्गणाओं का स्वरूप है । त्रमशः इनमें उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म होती जाती है। वैसे सभी सूक्ष्म हैं । परन्तु पहलो से दूसरी ज्यादा सूक्ष्म है। दूसरी से तीसरी और भी ज्यादा सूक्ष्म है । उसी तरह अन्तिम कार्मण वर्गणा सबसे ज्यादा सूक्ष्मतम है। अतः अत्यन्त सूक्ष्मतम होने से दृश्य नहीं है। उदाहरणार्थ जैसे समझीए-गेहूं का आटा कितना बारीक है । उससे भी उसका चापट कैसा स्थूल है। तथा गेहूं का मैदा कितना ज्यादा बारीक है । उसी तरह इन वर्गणाओं में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर का भेद है । इनमें सबसे ज्यादा अन्तिम कक्षा की सूक्ष्मता कार्मण वर्गणा में है। संसारस्थ जीव संसार में पुद्गल के आधार पर रहता है । अतः जीव के रहने के लिए जिस पर (शरीर) की आवश्यकता पड़ती है उसे निर्माण करने के लिए लोक में रही औदारिक आदि शरीर योग्य वर्गगा के समूह को ग्रहण कर जीव शरीर बनाता है । उसी तरह श्वासोच्छवास वर्गणा ग्रहण कर श्वासोच्छवास लेता है। उसी तरह भाषा वर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं को ग्रहण कर जीव बोलता है। भाषाक्रीय वचन व्यवहार करता है । उसी तरह विचार करने के लिए मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर मन बनाता है । तभी जीव सोच सकता है। विचार कर सकता है । अन्त में संसार में परिभ्रमण करने हेतु-एक गति से दूसरी गति-जाति आदि में जाने एवं जन्म-मरणादि धारण करते हुए ८४ लक्ष जीव योनियों के चक्कर में चारों गति में घूमने के कारणभत कर्म बनाने के लिए जीव कार्मण वर्गणा ग्रहण करता है । उसी कार्मण वगणा के पुद्गल परमाणुओं का बनाया हुआ पिण्ड ही कर्म कहलाता है। जब तक कार्मण वर्गणा आत्मा से नहीं मिली है अर्थात् आत्म प्रदेशों में कार्मण वर्गणा का प्रवेश कर्म की गति न्यारी १३३
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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