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________________ का फल देते हैं। तो क्या ऐसे परमाधामी नरकसंत्री को ईश्वर मानें ? क्या यह ईश्वर का स्वरूप हो सकता है ? और ऐसा विकृत हिंसक एवं क्रूर स्वरूप ईश्वर का हो तो फिर उसकी उपासना कैसे करें? मोक्ष दाता के रूप में उसे कैसे मानोगे ? इत्यादि विचारणा करने से फल दाता के रूप में भी ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता ही नहीं रहती। दूसरी तरफ सृष्टि रचना के पहले तो जीवों में कर्म नहीं होंगे। फिर सृष्टि की रचना करके निरर्थक ईश्वर ने उन जीवों को दु:ख के सागर में क्यों गिरा दिया ? वह भी सिर्फ अपनी लीला दिखाने के लिए। सिर्फ अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए । दूसरी तरफ जब जीवों को कठपुतली की तरह रखा है। ईश्वर ही उनका नियन्ता है। ईश्वर की क्रिया से ही वे सभी जीव क्रियान्वित होते हैं । अर्थात् इन कठपुतली जैसे जीवों के पास ईश्वर ही क्रिया कराता है । सब कुछ ईश्वर की इच्छा के आधीन ही होता है । वह करावे वही होता है। जीव स्वयं कुछ भी नहीं करता ईश्वर ही जीव के हाथों ऐसा कार्य ऐसी क्रिया कराता है । अच्छा मानलें कि ईश्वर ही स्व इच्छानुसार जीवों के पास कराता है। जीवों में होती अच्छी बूरी-सभी क्रियाओं का कर्ता ईश्वर सिद्ध होता है । अब ये क्रियाएं ईश्वर ने कराई है इसमें स्पष्ट है कि जीव तो क्रिया का कर्ता है ही नहीं। वह तो बिचारा कठपुतली की तरह निष्क्रिय है । अच्छा अब जब क्रियाकर्म हो चुके तो फिर ईश्वर उसको अच्छा-बूरा फल क्यों देता है ? फल देते समय ईश्वर सुख-दुःख दोनों देता है। सुख-दुःख देने के लिए सुख की गति और दुःख की दुर्गति में जीवों को भेजता है। तो यह क्यों ? कोई जीव यह कहे कि हे भगवन् ! मुझे नरक में मत भेजिये। मुझे ऐसा दुःख मत दीजिये । क्योंकि मैंने तो कोई पाप मेरी स्वेच्छा से किये ही नहीं है आपने ही आपकी इच्छानुसार मेरे से वह पाप करवाया है । वैसी क्रिया करवाई है तो उसमें मेरा क्या कसूर है ? अब उसका फल मुझे मत दीजिए। लेकिन ईश्वर किसी की सुनता ही नहीं है । वेद-स्मृति-श्रु ति-पुराण कहते हैं कि ईश्वर तो जीवों के कर्मानुसार फल देता है । तो ये कर्म जीवों के कर्म कहे जाएंगे ? या ईश्वर के खुद के कर्म ? चकि ईश्वर ने जीव के पास करवाए हैं फिर जीव के कर्म कैसे कहे जाएंगे ? यदि जीव के कर्म नहीं कहे जा सकते तो उसका फल जीव को क्यों मिलता है ? वाह पहले जीवों के पास ईश्वर वैसी क्रिया करवाये और फिर उसका फल भी ईश्वर दे । यह कैसा अज्ञान लगता है ? यह किस घर का न्याय ? निर्दोष बिचारे जीव को निरर्थक फल देना । यह तत्त्वज्ञान की सही दिशा ही नहीं है । अतः तत्त्वज्ञान का सम्यग् सही स्वरूप समझने के लिए ईश्वर को बीच में लाओं ही मत । जीव स्वयं ही राग-द्वषा ११२ कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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