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________________ कि-"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" हे अर्जुन ! कर्म करने में ही तेरा अधिकार है। तू कर्म करता रह। फल की चिन्ता मत करना। फल देने का कार्य मेरे हाथ में है । यह भी विचारणीय है। कर्म हम करें और फल देने का कार्य ईश्वर के हाथ में भी क्यों ? हमारे किये हुए कर्मानुसार हमें फल मिल जाता है तो फिर नाहक ईश्वर को वैसा फल देने के लिए बीच में क्यों घसीटें ? फल देने में भी ईश्वर का स्वरूप पुनः विकृत हो जाएगा। कर्ता जीव स्वयं ही जैसा करता है वैसा फल पाता है । स्वोपार्जित कर्म उस जीव के साथ है। आत्मा के साथ संलग्न है । जन्म-जन्मान्तर तक कर्म आत्मा के साथ रहते हैं और ठीक समय पर उदय में आकर वह अपना फल दिखा जाते है। फिर क्या आवश्यकता है कि कर्म फल का दाता ईश्वर को माने ? चावल सिगड़ी पर है, गर्मी मिल रही है, पानी है उसमें विदलन की क्रिया-पकने की क्रिया स्वतः हो रही है फिर ईश्वर को मानने की आवश्यकता ही कहां पड़ी ? गाय ने घास खाई और उसके शरीर में दूध बना। यह घास खाने की क्रिया का फल है । यहां क्रिया के फल के रूप में ईश्वर की आवश्यकता कहां पड़ी ? और यदि बलात् भी आप फल के लिए ईश्वर को मानेंगे तो सभी गायें घास खाती है सभी में दूध क्यों नहीं बनता ? फिर ईश्वर सभी को समान फल नहीं देता है। क्यों नहीं ? फल देने में भी ईश्वर पक्षपात करता है । ईश्वर स्वार्थाधीन हो जाता है। तो फिर ईश्वर में ईश्वरीय गुण ही नहीं रहे। और ईश्वरीय गुणों के अभाव में हम उसे ईश्वर ही कैसे कहें ? सामान्य मानवो सिद्ध हो जाएगा। दूसरी तरफ ईश्वर तो परम दयालु है । अनुग्रह बुद्धिवाला करूणामय कारूणिक है तो फिर वह तो जीव के कर्म को देखकर दयाभाव से माफ ही कर देगा। जीव को फल दिये बिना ही छोड़ देगा। यही होना चाहिए। और दयाभाव है तो सभी जीवों के प्रति समान भाव से दया आनी चाहिए सभी के कर्मों को माफ कर देना चाहिए। फिर किसी के कर्मों को माफ करता है और किसी के कर्मों को नहीं । ऐसा क्यों ? अच्छा जिनके कर्मों को ईश्वर माफ नहीं करता है तो क्यों नहीं करता है ? वहां ईश्वर की दया करूणा कहां चली गई ? दया के अभाव में क्रूरता मानोगे तो ही नरकादि का फल देने का कार्य ईश्वर में संभव हो सकेगा। चूंकि नरकादि का फल तो क्रूरता से क्रूरवृत्ति से ही सम्भव है। ईश्वर यदि क्रूर-निष्ठूर बन जाएगा तब ईश्वर का स्वरूप कैसा बनेगा ? तो फिर नरक संत्री परमाधामी नरपिशाच उन राक्षसों को ही ईश्वर मान लें क्या ? चुकि वे महा क्रूर होते हैं हिंसक वृत्ति वाले होते हैं ।। नरक गति में जीवों को मारना, काटना, पकोड़े की तरह उबलते तेल में तलना, चमड़ी उतार देना आदि नाना प्रकार से जीवों को कर्म कर्म की गति न्यारी ૧૧૧
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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