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गर्भ की परिपक्वता में सहायक-अपेक्षित कारण जरूर हैं । अतः कालवादी का एकान्त काल पक्ष सुसंगत नहीं ठहरता । काल सभी कार्यों का असाधारण नियतपूर्ववर्ति कारण नहीं ठहरता । फिर तो कुम्हार मिट्टी-पानी-चक्र-दण्ड से घड़ा क्यों बनाता है ? काल से ही घड़ा बनाना चाहिए। लेकिन नहीं यह भी प्रत्यक्ष विरुद्ध है । अत: काल को उपयोगी-महयोगी कारण जरूर मान सकते हैं परन्तु जनक कारण नहीं मान सकते।
स्वभाववाद
न स्वभावातिरेकेरण गर्भ-बाल शुभादिकम् । पत्किञ्चिज्जायते लोके, तदसौ कारणं किल । सर्वे भावाः स्वभावेन स्व-स्वभावे तथा तथा ।
वर्तन्तेऽथ निवर्तन्ते, कामचारपराड.मुखाः ।। दूसरे पक्ष में स्वभाववादी आ रहे हैं। स्वभाववादी कहते हैं कि-गर्भ, बालक, शुभ, स्वर्ग आदि जो भी कोई कार्य संसार में होता है वह सब स्वभाव के कारण ही होता है । बिना स्वभाव के कुछ भी नहीं होता। सभी भाव कार्य अपने या अपने उपादान के स्वभाव के बल पर विशिष्ट आकार प्रकार आदि से नियत होकर ही अपने अपने स्वभाव में अवस्थित होते हैं। भावों (पदार्थों) का नाश भी उनके स्वभाव से ही नियत-देशकाल में ही होता है, क्योंकि वे पदार्थ इच्छानुसार स्वतंत्र न होकर अपने स्वभाव के प्रति परतन्त्र होते हैं। मूग का पाक भी सिर्फ काल से ही नहीं होता । क्योंकि अश्वमाष-पथरिले उडद या पथरिले मूग घण्टों या दिनों तक भी सिगड़ी पर गरम पानी में उबलते रहें तो भी उसमें पाक नहीं आता है। अतः काल नहीं स्वभाव प्रमुख कारण है। श्वेताश्वतर उपनिषद में स्वभाववाद का उल्लेख है । वहां तो यहां तक लिखा है कि जो कुछ होता है वह स्वभाव से ही होता है । स्वभाव के अतिरिक्त कर्म या ईश्वरादि कोई कारण नही है । बुद्ध चरित एवं गीता महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है। दूसरे गणधर अग्निभूति ने भी कर्म की शंका के विषय में भगवान महावीरस्वामी से चर्चा करते समय स्वभाववाद की चर्चा की है। वे भी स्वभाव को ही प्रमुख कारण मानने के पक्ष की बात करते थे तब प्रभु ने कहा-स्वभाव से जगद्-वैचित्र्य मानना अयुक्त है। चूंकि-स्वभाव क्या है ? क्या स्वभाव वस्तु विशेष है ? या वस्तु धर्म है ? स्वभाव को वस्तु भी नहीं कह सकते । वह द्रव्य स्वरूप में दिखाई भी नहीं देती । स्वभाव
कर्म की गति न्यारी
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